Sunday 7 September 2014

अशिक्षित निरक्ष्रर युवा



  1. भारत में निरक्ष्रर युवाओं की
  2.  तादाद सबसे ज्यादा : रिपोर्ट  


 Jan 30, 2014

 पीटीआई, यूएन
दुनिया में निरक्ष्रर युवाओं की सबसे ज्यादा आबादी भारत में है, यह कहना है संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की एक रिपोर्ट का। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में ऐसे युवाओं की तादाद 28 करोड़ 70 लाख है और यह संख्या दुनिया के अशिक्षित निरक्ष्रर युवाओं का 37 प्रतिशत है। यूएन का कहना है कि इससे पता चलता है कि भारत में अमीर और गरीब के बीच शिक्षा को लेकर कितनी असमानताएं हैं। 2013/14 एजुकेशन फॉर ऑल ग्लोबल मॉनिटरिंग नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया कि भारत की साक्षरता दर साल 1991 के 48 प्रतिशत से बढ़कर साल 2006 में 63 प्रतिशत हो गई। लेकिन इस दौरान जनसंख्या में हुई बढ़ोतरी की वजह से किसी तरह का फायदा नहीं हुआ और निरक्ष्रर युवाओं की तादाद में कोई कमी नहीं आई। इस रिपोर्ट को युनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (यूनेस्को) ने तैयार किया है। रिपोर्ट में आगे कहा गया कि भारत की सबसे अमीर युवा महिलाओं को सार्वभौमिक साक्षरता मिल चुकी है, लेकिन गरीब महिलाओं को इस मुकाम तक पहुंचने में साल 2080 तक का वक्त लग जाएगा। इस लिहाज से भारत में मौजूद ये निराशाजनक स्थितियां दिखाती हैं कि सबसे ज्यादा जरूरतमंद लोगों तक पर्याप्त सहयोग नहीं पहुंचा है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि वैश्विक स्तर पर शिक्षा की समस्या के कारण सरकारों को हर साल 129 अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है। इसमें कहा गया कि दुनिया के दस देशों में निरक्ष्रर लोगों की तादाद 55 करोड़ 70 लाख है और यह कुल निरक्ष्रर लोगों की संख्या का 72 प्रतिशत है। दुनिया भर में प्राइमरी एजुकेशन पर जो खर्च किया जाता है उसका 10 प्रतिशत शिक्षा की खराब क्वॉलिटी की वजह से बर्बाद हो जाता है। इस स्थिति की वजह से गरीब देशों में, हर चार में से एक युवा एक वाक्य पढ़ने में भी नाकाम रहता है। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के सबसे अमीर राज्यों में से एक, केरल में हर शख्स के एजुकेशन पर 685 डॉलर खर्च किया जाता है। 


पढ़ाई पर प्रश्न   

 Thursday, 30 January 2014

जनसत्ता 30 जनवरी, 2014 : पिछले कुछ सालों में सरकारी स्तर पर कराए गए अध्ययनों से लेकर ‘प्रथम’ जैसे गैर-सरकारी संगठनों की सालाना रिपोर्टों में स्कूली शिक्षा की दयनीय हालत सामने आती रही है। अब ‘सबके लिए शिक्षा’ विषय पर यूनेस्को की ग्यारहवीं वैश्विक निगरानी रिपोर्ट में भी जो तस्वीर उभरी है, वह बताती है कि भारत में शिक्षा के प्रति सरकारों का रवैया कितना लापरवाही भरा है। इन सभी रिपोर्टों ने पांचवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के सीखने की गति को लेकर घोर चिंताजनक तथ्य दिए हैं। कमजोर तबकों के नब्बे फीसद बच्चे अगर चार साल की स्कूली पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के बावजूद लगभग निरक्षर हैं, तो हम किस आधार पर अपनी शिक्षा व्यवस्था को संतोषजनक कह सकते हैं? स्कूली शिक्षा में महाराष्ट्र और तमिलनाडु अपेक्षया अच्छी स्थिति में माने जाते हैं। पर यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट बताती है कि महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में पढ़ने वाले चौवालीस फीसद बच्चे दो अंकों का घटाव नहीं कर पाते हैं। तमिलनाडु के संदर्भ में यह आंकड़ा  तिरपन फीसद फीसद बैठता है।  सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई के माहौल से लेकर शिक्षकों की कमी आदि अनेक वजहों से शैक्षिक गुणवत्ता के स्तर में गिरावट एक बड़ी समस्या बनती गई है। बिहार में अड़तीस और झारखंड में बयालीस फीसद शिक्षक रोजाना किसी न किसी बहाने गैरहाजिर रहते हैं। ऐसे में हम शैक्षिक गुणवत्ता की कितनी उम्मीद कर सकते हैं? यह समस्या महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में भी बनी हुई है। यह बेवजह नहीं है कि समृद्ध राज्यों में भी बेहद गरीब घरों के बच्चों और खासकर लड़कियों के बीच सीखने की क्षमता बेहद कमजोर बनी हुई है। दरअसल, मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा कानून लागू होने के बाद सरकारों का जोर स्कूलों में दाखिला बढ़ाने पर रहा है और देश के तमाम इलाकों में इसमें कामयाबी भी दर्ज हुई। लेकिन सिर्फ दाखिलों में इजाफा शैक्षिक तस्वीर में सुधार का मानक नहीं हो सकता। खुद एक सरकारी अध्ययन में दाखिलों का फर्जीवाड़ा उजागर हो चुका है, जिसमें राज्यों ने केंद्र से ज्यादा अनुदान लेने की मंशा से नामांकन को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया।  यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक पर्याप्त और प्रशिक्षित शिक्षकों के अभाव के चलते सीखने का यह संकट अगली कई पीढ़ियों को नुकसान पहुंचाता रहेगा और इसकी सबसे ज्यादा मार वंचित तबकों के लोगों पर पड़ेगी। उदाहरण के तौर पर उप-सहारा अफ्रीकी देशों की स्थिति को देखा जा सकता है जहां गरीब घरों के पांच में से सिर्फ एक बच्चा प्राथमिक शिक्षा पूरी कर पाता है; युवा आबादी का एक चौथाई हिस्सा एक वाक्य भी ठीक से नहीं पढ़ पाता। तो क्या हमारे देश के नीति-नियंताओं को भविष्य के संकट का अंदाजा नहीं है? क्या केवल बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने या शिक्षा का अधिकार कानून बना देने से समानता आधारित शिक्षित समाज का सपना पूरा किया जा सकेगा? शिक्षा अधिकार कानून में दो प्रमुख कसौटियां रखी गई थीं। एक यह कि 2013 तक स्कूलों में सभी ढांचागत सुविधाएं मुहैया करा दी जाएंगी। समय-सीमा पूरी हो जाने के बावजूद यह नहीं हो सका है। दूसरी शर्त अपेक्षित शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात सहित शैक्षिक गुणवत्ता से संबंधित थी जो 2015 तक पूरी हो जानी चाहिए। मगर मौजूदा हालत को देखते हुए इस कसौटी का भी क्या हाल होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है।

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