Sunday 7 September 2014

बेरोजगार युवा



20 करोड़ बेरोजगार

नवभारत टाइम्स  Jul 4, 2014, 

इस समय दुनिया भर में करीब 20 करोड़ बेरोजगार हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक इनमें सबसे बड़ा हिस्सा युवाओं का है। दरअसल, छह वर्ष पूर्व के वित्तीय संकट के बाद अर्थव्यवस्था सुधरने की गति खासी धीमी रही है। इस मामले में सबसे खराब हालत दक्षिण अफ्रीका की है, लेकिन भारत का हाल भी उससे ज्यादा अलग नहीं है। 2011 की जनगणना के मुताबिक कामकाजी उम्र की शुरुआत, यानी 15 से 24 बरस के बीच के 20 फीसदी से भी अधिक भारतीय बेरोजगार हैं। इनमें से कुछ लोग निकट भविष्य में रोजगार मिलने की उम्मीद कर सकते हैं, लेकिन 30 से 34 साल की पक्की उम्र में रोजगार मिलने की संभावना नहीं के बराबर होती है, इस आयु वर्ग में भी बेरोजगारी की दर 6 प्रतिशत दर्ज की गई है। देश के कुल 12 फीसदी लोग बेरोजगारी की चपेट में बताए गए हैं। ध्यान रहे, ये आंकड़े तीन साल पहले के हैं और बीच की अवधि में इनकी भयावहता कुछ और बढ़ चुकी होगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेरोजगारी एक जटिल समस्या बनती जा रही है। शिक्षा और रोजगार के बीच कोई संतुलन ही नहीं बन पा रहा है। यह सब अचानक नहीं हो गया। आर्थिक विकास दर आठ फीसदी रहने के बावजूद अर्थव्यवस्था और रोजगार के बीच का तालमेल पिछले दशक में ही गड़बड़ा गया था। लेबर मिनिस्ट्री की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 4.7 करोड़ बेरोजगार युवाओं में 2.6 करोड़ पुरुष और 2.1 करोड़ महिलाएं हैं। इधर यह भी साफ हुआ है कि महिलाएं अब शादी के बाद घर नहीं बैठना चाहतीं। 20 से 29 के की उम्र की काम चाहने वाली महिलाओं की तादाद पुरुषों के बराबर है। लेकिन काम के मौके दोनों के लिए ही काफी कम हैं। 29 साल की उम्र तक हर तीन में से एक ग्रेजुएट बेरोजगार है। यह शिक्षित बेरोजगारी युवाओं को विकासशील मध्यवर्ग का हिस्सा बनने से तो रोक ही रही है, उनमें कुंठा भी पैदा कर रही है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि भारत में बेरोजगारी के आंकड़े विकसित देशों की तरह समय के साथ नहीं चलते। यहां बेरोजगारी का अंदाजा जनगणना से ही लग पाता है, जो हर दस साल के बाद होती है। ऐसे में बेरोजगारी राजनीति के लिए तो दूर, समाज के लिए भी किसी गंभीर मुद्दे की शक्ल नहीं ले पाती।
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बढ़ती बेकारी का हल खोजें

29, SEP, 2014, MONDAY 12:24:49 AM

आर्थिक विकास के आंकड़े चाहे जो कहते हों पर यह भी एक कटु सच्चाई है कि बढ़ती बेकारी की समस्या का हल खोजने की दिशा में नई आर्थिक नीतियां सफल नहीं रही हंै। पूरे राष्टï्रीय परिपे्रक्ष्य में यह देखा जा सकता है। विकास दर की दृष्टि से देश के अग्रणी राज्यों में शुमार छत्तीसगढ़ में भी बेकारी तेजी से बढ़ रही है। राज्य जनशक्ति नियोजन विभाग के आंकड़े इसकी गवाही देते हैं। हालांकि उद्योग-व्यापार के क्षेत्र में प्रगति का पता इस बात से चलता है कि राज्य का वार्षिक बजट बढ़कर 50 हजार करोड़ के आंकड़े के आसपास पहुंचने वाला है। संचालनालय रोजगार एवं प्रशिक्षण विभाग के रोजगार एवं मार्गदर्शन केन्द्रों में हर साल करीब ढाई लाख शिक्षित, प्रशिक्षित युवा पंजीकृत हो रहे हैं, जिन्हें रोजगार की तलाश है। यह संख्या बढ़कर 15 लाख के करीब पहुंच गई है। सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसरों की अपनी सीमाएं हैं, लेकिन निजी व सार्वजनिक क्षेत्र में भी स्थिति बहुत संभावनापूर्ण दिखाई नहीं देती। बढ़ती बेकारी को दूर करने के लिए जरुरी है कि सरकार रोजगार की नए अवसरों के सृजन की संभावनाओं की तलाश के काम में तेजी लाए और सरकारी प्रोत्साहन देकर विपुल मानव संसाधन को राज्य के विकास की योजनाओं से जोड़े। आज का दौर व्यावसायिक शिक्षा का है और बड़ी संख्या में राज्य के युवा इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर निकल रहे हैं। बड़ी तादाद ऐसे बेरोजगारों की भी है, जिन्होंने आईटीआई से विभिन्न ट्रेडों  का प्रशिक्षण लिया है। सरकार ने स्वयं के रोजगार-धंधे के लिए आजीविका कालेज भी खोले हैं। ऐसे कालेजों से कौशल प्रशिक्षण लेकर निकलने वाले युवाओं को भी स्वयं का व्यवसाय शुरु करने के लिए आर्थिक सहायता की आवश्यकता होगी। राज्य में निजी क्षेत्र के उद्योगों में स्थानीय बेरोजगारों की यह कहकर उपेक्षा की जाती है रही है कि उनमें कौशल और योग्यता की कमी है। दरअसल, यह स्थानीय बेरोजगारों को अवसर न देने का गढ़ा गया बहाना है। यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि किसी भी उद्योग को इसी शर्त पर मंजूरी दी जाएगी कि वह स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसरों का लाभ दे। अब तक यह भू-विस्थापित के मामलों में ही अनिवार्य है, फिर भी उद्योग कोताही बरतते रहे हैं। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने राष्टï्रीय खनिज विकास निगम के बस्तर में स्थापित हो रहे इस्पात संयंत्र में कम से कम निचली श्रेणी के पदों को स्थानीय बेरोजगारों से ही भरे जाने का अनुरोध निगम के सीएमडी से किया था। इस अनुरोध को कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसरों का लाभ दिलाने के लिए रोजगार मेलों का आयोजन एक अच्छा प्रयास था, लेकिन नियोक्ताओं ने सिर्फ खानापूर्ति करने की कोशिश की। रोजगार मेलों में पिछले दो वर्षों से 10 हजार बेरोजगारों को अवसर दिलाने का दावा किया गया है। अधिकारियों को पता लगाना चाहिए कि इनमें से कितने अभी तक कार्यरत हैं और कितने काम छोड़ चुके हैं। इन मेलों में प्राय: को बीमा, निवेश के अभिकर्ता और निजी सुरक्षा कंपनियों में गार्ड की नौकरी पर रखा गया था, जहां न्यूनतम वेतन कानूनन का भी ठीक से पालन नहीं किया जाता। बढ़ती बेकारी को रोकने के लिए एक ऐसा अभियान शुरु किए जाने की आवश्यकता है, जिससे कौशल व योग्यता के आधार पर मानव संसाधन का नियोजन हो सके।


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