Sunday 7 September 2014

शिक्षा की गुणवत्ता




किसी भी नौकरी के काबिल  नहीं हैं

 47 प्रतिशत भारतीय स्नातक 

  2014-01-02

वर्ष 2013 के दौरान रोजगार पाने की पात्रता संबंधी किए गए एक अध्ययन के अनुसार यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है कि इस वर्ष स्नातक होकर निकले लगभग 47 प्रतिशत भारतीय युवा रोजगार के किसी भी क्षेत्र में नौकरी पाने के काबिल नहीं हैं। इनमें से अधिकांश युवा अंग्रेजी भाषा तथा अन्य कौशलों में कोरे और बेहद कमजोर पाए गए। सर्वे में शामिल युवाओं में से सिर्फ 2.59 प्रतिशत ही अकाऊंटिंग जैसे कामों के लिए उपयुक्त पाए गए जबकि 15.88 प्रतिशत युवा बिक्री से संबंधित सैक्टर और 21.37 प्रतिशत युवा बिजनैस प्रोसैस आऊटसोर्सिग सैक्टर में नौकरी के उपयुक्त पाए गए।  इस अध्ययन के अनुसार 3 वर्षीय डिग्री कोर्स करने वाली महिलाएं रोजगार पाने की पात्रता के मामले में पुरुषों के बराबर या उनसे बेहतर पाई गईं। अध्ययन के अनुसार अंग्रेजी, कम्प्यूटर और अन्य सामान्य कौशलों में कमजोर होना रोजगार प्राप्त करने में मुख्य बाधा है। उक्त अध्ययन भारत में नीचे की कक्षाओं से लेकर ऊपर की कक्षाओं तक शिक्षा प्रणाली की बदहाली व इसमें व्याप्त बुनियादी कमजोरियों का मुंह बोलता प्रमाण है। भारत में शिक्षा नीति में आमूल चूल-सुधार और शिक्षा के बुनियादी ढांचे को मजबूत करके ही इसका उपचार संभव है।


कागज पर जारी कागजी पढ़ाई

   नवभारत टाइम्स | Jan 30, 2014

एजुकेशन फॉर ऑल (ईएफए) के तहत यूनेस्को की ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में चार साल तक स्कूल जाने के बावजूद 90 फीसदी गरीब बच्चे कुछ नहीं सीख पाते। 30 फीसदी बच्चे पांच-छह साल की स्कूली पढ़ाई के बावजूद सामान्य जोड़-घटाना नहीं जानते। जहां तक ग्रामीण महिलाओं में साक्षरता का प्रश्न है, रिपोर्ट बताती है कि अभी यह काम पूरा होने में 66 बरस और लग सकते हैं।  देश का मध्यवर्ग अपने बच्चों को जिन सेंट्रल बोर्ड स्कूलों में पढ़ाकर संतुष्ट है, वे पूरी तरह निजी हाथों में हैं, लिहाजा देश के 85 फीसदी बच्चों के लिए उनकी कोई उपयोगिता नहीं है। सरकारी नियंत्रण में चलने वाली प्राइमरी शिक्षा की गुणवत्ता देश के लिए गहरी चिंता का विषय होनी चाहिए, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों की खींचतान के बीच इसे अब अजेंडा से बाहर ही मान लिया गया है। केंद्र द्वारा राइट टु एजुकेशन का एलान करने के बाद तो बुनियादी तालीम पूरी तरह यतीम हो चुकी है? केंद्र सरकार को सिर्फ स्कूलों में भर्ती के आंकड़ों से मतलब है और राज्य सरकारें सोचती हैं कि इस मामले में ज्यादा मशक्कत करने से उनका वोट बैंक तो बढ़ने वाला नहीं है, उल्टे शिक्षक यूनियनों के नाराज हो जाने का खतरा अलग है।  बचपन से ही रोजी-रोटी के काम में मां-बाप का हाथ बंटाने को मजबूर गरीब बच्चों को स्कूल तक खींच कर लाने के लिए बनाई गई मिड डे मील योजना खुद में एक राष्ट्रव्यापी स्कैंडल बनकर रह गई है। कभी इसमें खाना खाकर बच्चों के बीमार बनने की खबर आती है तो कभी शिक्षक पढ़ाई-लिखाई का स्तर गिरने का ठीकरा खाना पकाने और परोसने की एडिशनल जिम्मेदारी पर थोपते नजर आते हैं। यूनेस्को की यह रिपोर्ट ऐसी ही बीमारियों का सम्मिलित नतीजा है। असल सवाल यह है कि हम इससे मिलने वाली चेतावनी की तरफ ध्यान भी देंगे या इसे महज एक बाहरी रिपोर्ट मानकर ठंडे बस्ते में डाल देंगे।  भारत में बुनियादी शिक्षा का एक पहलू यह भी है कि इसके तहत प्रति बच्चा खर्च लगातार बढ़ रहा है, लेकिन इसका कोई असर नजर नहीं आ रहा। भारत में राज्यों के बीच भी इस खर्च को लेकर जबर्दस्त असमानता देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए बिहार में इस काम पर आने वाला खर्च केरल के छठे हिस्से के बराबर है। साफ है कि राज्य इस मामले में अपने हिस्से आने वाला खर्च करने में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखा रहे। इसके चलते केंद्र को भी अपने हिस्से की राशि खर्च न करने का बहाना मिल जाता है।  यूनेस्को की यह रिपोर्ट सुझाती है कि 2015 और इसके बाद की योजनाओं में कुल सरकारी खर्च का 20 फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करने की कोशिश होनी चाहिए। प्राइमरी शिक्षा की गुणवत्ता को अजेंडे पर लाने के साथ ही भारत को खर्च बढ़ाने के इस सुझाव पर भी गंभीरता से गौर करना होगा क्योंकि प्राइमरी शिक्षा का स्तर ऊंचा किए बगैर विकास के रास्ते पर हम ज्यादा दूर नहीं जा पाएंगे। 

 परीक्षा की ओर लौटना चाहिए

शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के तहत विद्यार्थियों को अगली कक्षा में क्रमोन्नत करना आवश्यक हो जाने के बाद विद्यार्थियों, शिक्षकों और अभिभावकों ने तो कक्षा आठवीं तक की पढ़ाई से करीब-करीब मुंह ही मोड़ लिया है। कुछ राज्यों ने तो आरटीई एक्ट लागू होने से पहले ही कक्षा के स्तर को प्राप्त किए बिना ही अगली कक्षा में क्रमोन्नत करने का सिलसिला बना रखा है। परिणामत: सभी स्तरों पर शिक्षा में गिरावट आ रही है।  आरटीई एक्ट पास होनेे के बाद देश के बीस राज्यों के शिक्षा मंत्रियों तथा शिक्षाविदों ने इसका विरोध किया था। इस विरोधस्वरूप केन्द्र सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति जून-2012 में हरियाणा की शिक्षा मंत्री डॉ. गीता भुक्कल की अध्यक्षता में गठित की थी। इस समिति में प्रान्तों के शिक्षा के अधिकारी भी शामिल किए गए थे। यह निकाय विद्यालयों के शिक्षा सम्बंधी निर्णय लेने वाला सर्वोच्च निकाय है। डॉ. गीता भुक्कल ने एडवायजरी-बोर्ड-ऑफ-एजुकेशन की 62वीं मीटिंग में रिपोर्ट पेश करते हुए सिफारिश की है कि विद्यार्थियों की स्क्रीनिंग होना अत्यंत आवश्यक है। समिति ने इस बात पर भी जोर दिया है कि आठवीं कक्षा तक बिना कक्षा का स्तर प्राप्त किए छात्रों को पास करना, नवीं और दसवीं कक्षा में पहुंचने वाले विद्यार्थियों के लिए गंभीर परेशानियां पैदा कर रहा है। समिति ने इस योजना को समाप्त करने की सिफारिश की है। इससे उच्च माध्यमिक कक्षा में पहुंचने वाले विद्यार्थियों की गुणवत्ता और संख्या में काफी कमी आ रही है और परीक्षा परिणाम में भी गिरावट आ रही है। शिक्षकों के पढ़ाने का स्तर भी धीरे-धीरे कमजोर हो रहा है। उल्लेखनीय है कि इस विषय पर पिछले दिनों एक संसदीय पैनल ने भी चिंता व्यक्त की थी।  मेरी समझ में आज हम शिक्षा के मूलभूत सिद्धांतों की पूर्ण अवहेलना कर रहे हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को यदि समझना चाहते हैं, तो हमें उसे दायित्वपूर्ण, परिष्कृत, उपयोगी और परिमार्जित बनाना होगा। अगर हम शिक्षा की नीति निर्धारण करने से पूर्व कुछ मूलभूत बातों को ध्यान में रखें, तो एक सशक्त, संतुलित और समग्र शिक्षा नीति का निर्माण कर सकते हैं। पहला, हमें माता-पिता या अभिभावकों को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वे उच्च संस्कारों से युक्त, बच्चे के प्रथम चार-पांच सालों में नैतिकता की नींव डालें और इस बात को समझें कि शिक्षा का दायित्व केवल सरकार और विद्यालयों का ही नहीं है, शिक्षा परिवार एवं समाज का अहम दायित्व है।  दूसरा पहलू हैं शिक्षक, उन्हें इस बात के लिए तैयार करना चाहिए कि वे विद्यार्थियों में आपसी स्पर्धा उत्पन्न न होने दें, क्योंकि स्पर्धा आपस में वैमनस्य पैदा करती है। एक योग्य शिक्षक को विद्यार्थियों में ऎसी जागरूकता पैदा करनी चाहिए कि वे स्पर्धा अपने आप से करें, दूसरों से नहीं। तीसरा मुद्दा है विद्यार्थी, जिसकी मौलिक विशेषताओं को उभारा जाना चाहिए। चौथा पहलू है पाठ्यक्रम, जो विद्यार्थी को आधुनिक ज्ञान के साथ-साथ समाज, रोजगार के लिए भी तैयार कर सके। पांचवा पहलू है शिक्षा को आडम्बरों से मुक्त कर सस्ती और सार्वजनिक बनाया जाए। गरीब और अमीर को उसे प्राप्त करने में आर्थिक दुविधा न हो। ध्यान रहे आडम्बरों से मुक्त सस्ती शिक्षा जनता और विद्यार्थियों में आत्मविश्वास और सरकार के प्रति आस्था पैदा करेगी। छठी और आखिरी बात है विद्यालय और समाज का वातावरण, जिसमें पारदर्शिता, शुद्धता और विश्वसनीयता रहनी चाहिए। शिक्षा की नीतियां बनाने वालों को पता होना चाहिए कि उपरोक्त बातों से शिक्षा ऎसे गुथी हुई होती है कि शिक्षा से इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। इनका निर्माण शिक्षा ही करती है और ये सभी एक सशक्त शिक्षा पद्धति से निर्मित होते हैं।
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ये युवा कैसा भारत बनाएंगे

Saturday, 12 July 2014

एनके सिंह
 जनसत्ता 12 जुलाई, 2014 : विश्व बैंक ने ‘दक्षिण एशियाई छात्रों में ज्ञान’ शीर्षक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि भारत सहित दक्षिण एशियाई देश शिक्षा पर खर्च तो कर रहे हैं पर शिक्षण की गुणवत्ता खराब होने की वजह से इन देशों का आर्थिक विकास ही नहीं अवरुद्ध हो रहा है बल्कि इससे युवाओं में बेरोजगारी-जनित गरीबी भी बढ़ रही है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों के कक्षा पांच के विद्यार्थी सामान्य माप-तौल, दो-अंकों का जोड़-घटाना, अपनी बात को वाक्य में लिख कर समझाना या शुद्ध वाक्य लिखना तक नहीं जानते। न ही वे सौ तक के अंकों या पूरी ककहरा (संपूर्ण वर्णमाला) का ज्ञान रखते हैं। उधर बिहार सरकार ने पिछले सप्ताह पाया कि प्राइमरी स्तर पर जिन 1.50 लाख शिक्षकों की संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) के आधार पर नियुक्ति कुछ साल पहले की गई थी उनमें से जब पचास हजार की जांच की गई तो उनमें से बीस हजार की डिग्रियां या सर्टिफिकेट फर्जी थे। जो सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात है वह यह कि शिक्षक की नियुक्तियों में अधिकारियों, मुखियाओं ने जमकर पैसे कमाए हैं और अधिकतर नियुक्तियां डेढ़ लाख से दो लाख रुपए घूस लेकर की गई हैं। उस पर तुर्रा यह कि इस मामले के संज्ञान में आने के बाद भी केवल कुछ मुखियाओं को हटाया गया लेकिन किसी भी स्तर के एक भी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में इस युवा शक्ति का जिक्र किया और विश्वास जाहिर किया कि विश्व पटल पर यही शक्ति भारत को आगे ले जाएगी। लेकिन शायद इस शक्ति को वास्तव में उपादेय बनाने के लिए एक नई क्रांति का आगाज करना होगा देश की शिक्षा नीति में। अन्यथा विश्व बैंक की रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि यह शक्ति एक बोझ बन जाएगी देश की छाती पर।  हाल ही में एक बड़े मीडिया शिक्षा संस्थान में भर्ती के लिए आयोजित एक इंटरव्यू में पाया गया कि जो छात्र-छात्राएं पत्रकारिता में परास्नातक (पोस्ट ग्रेजुएशन) में दाखिले के लिए आए उनमें नब्बे प्रतिशत को यह नहीं मालूम था कि प्रधानमंत्री का चुनाव कैसे होता है। कई छात्रों को नेहरू और इंदिरा गांधी में क्या संबंध थे नहीं मालूम था और लगभग पंचानबे प्रतिशत भारत के पांच पूर्व राष्ट्रपतियों के नाम नहीं बता पाए। लगभग इतने ही तुलसीदास को नहीं जानते थे और अगर इक्के-दुक्के ने बताया भी तो यह कह कर कि इनका एक ‘रामायण’ नामक सीरियल से संबंध है। भारत प्रतिवर्ष अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.2 प्रतिशत (दो लाख सत्तर हजार करोड़ रुपए, जिसमें से पैंसठ हजार करोड़ रुपए केवल केंद्र सरकार का बजट है) शिक्षा पर खर्च करता है। दबाव यह है कि इसे कम-से-कम ढाई गुना किया जाए। हालांकि कुछ राज्य जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश यह दावा तो करते हैं कि इनके यहां पंजीकरण (एनरोलमेंट) का प्रतिशत नब्बे से सत्तानबे हो गया है, पर इसका कारण शिक्षा के प्रति समाज में रुझान न होकर छात्रों को मिलने वाली मदद (वस्तु या नकद के रूप में) और मध्याह्न भोजन है। गैर-सरकारी संस्था ‘प्रथम’ की पिछले पांच वर्षों की रिपोर्ट (असर) लगातार इस बात को पुरजोर तरीके से उठा रही है कि ‘बीमारू’ राज्य खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में कक्षा पांच के बासठ प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा दो का ज्ञान नहीं रखते और सामान्य जोड़-घटाव भी नहीं कर पाते। पर शायद राज्य सरकारों के भ्रष्ट और निकम्मे तंत्र को केंद्र से मिलने वाले अनुदान या वोट की राजनीति से ज्यादा लगाव है। बिहार की नीतीश सरकार ने स्कूली छात्रों को मुफ्त साइकिल देना चुनाव का मुद्दा बनाया बगैर यह सोचे हुए कि राज्य में जो पौध लगाई जा रही है वह राष्ट्रीय स्तर पर जब नौकरी के बाजार में जाएगी तो कोई उन्हें नहीं पूछेगा। और तब आरोप लगेगा कि कि देश में अस्सी प्रतिशत ग्रेजुएट बेरोजगार हैं। इन राज्यों में शिक्षण की गुणवत्ता बेहद खराब रही है। और ऐसा नहीं है कि इन राज्यों के मुखिया यह सब नहीं जानते। ‘असर’ ने शिक्षा को लेकर अधिकारियों और शिक्षकों की आपराधिक उदासीनता और चालाकी पर दो वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के जिले का एक किस्सा बयान किया। हेडमास्टरों की एक बैठक में एक सरकारी अधिकारी ने कहा ‘सभी बच्चों का दाखिला लें; उनके साथ मारपीट न करें; उन्हें पास करके अगली कक्षा में भेजें और सुनिश्चित करें कि वे अगले साल भी दाखिला लें और अगर आप ऐसा कर लेते हैं तो यह तय मानिए कि आपने शिक्षा के अधिकार के तहत मिले अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है।’ अधिकारी के इस आदेश के पीछे छिपा संदेश स्पष्ट था। संकेत यह था कि बच्चा पढ़ने आए न आए, रजिस्टर में नाम होना चाहिए; पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है; और अगले साल भी यही काम करना है ताकि येन-केन-प्रकारेण ‘लक्ष्य’ हासिल हो सके। व्यापक रूप से किए गए इस सर्वेक्षण में सरकार के तमाम दावों के खोखलेपन को उजागर किया गया है। अध्ययन में इस बात को भी दर्शाया गया है कि किस तरह से बीमारू राज्य (बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और साथ ही साथ उत्तराखंड और छत्तीसगढ़) शिक्षा के क्षेत्र में लगातार पिछड़ रहे हैं। भारत सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के बजट को बढ़ाते हुए 68,710 करोड़ (2007-08) से बढ़ा कर 97,255 करोड़ (2009-10) कर दिया, लेकिन ऐसा लग रहा है कि इन सारे प्रयासों पर संबंधित राज्य सरकारों के भ्रष्ट-तंत्र ने पानी फेर दिया है। दरअसल, शिक्षा देने की जिम्मेदारी संवैधानिक रूप से ही नहीं, व्यावहारिक रूप से भी राज्य सरकारों की ही है। ‘असर’ की रिपोर्ट देखने के बाद यहां प्रश्न उठता है कि क्या इसी किस्म के प्रयासों से हम चीन जैसे राष्ट्रों से मुकाबला कर सकेंगे। आज भारत में जहां उच्च-शिक्षा के लिए केवल साढ़े तेरह प्रतिशत छात्र दाखिला (जीइआर) ले रहे हैं, वहीं चीन और मलेशिया- जो हमसे काफी पीछे रहा करते थे- के 22.1 और 24 प्रतिशत छात्र आज उच्च शिक्षा में दाखिला लेते हैं। जबकि अमेरिका में उच्च-शिक्षा में 81.6 प्रतिशत छात्र प्रवेश लेते हैं। एक और उदाहरण देखिए। आज से अठारह साल पहले जहां चीन में केवल उन्नीस सौ पीएचडी हुआ करते थे (जबकि भारत में करीब तीन हजार पीएचडी होते थे) आज बाईस हजार पीएचडी हर साल निकलते हैं। भारत में केवल छह हजार पीएचडी निकल रहे हैं जबकि अमेरिका में चालीस हजार। अगर यही स्थिति रही तो भारत ‘पॉवर इज नॉलेज’ (ज्ञान ही शक्ति है) की दौड़ में कितना पीछे रहेगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ‘असर’ की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश में कक्षा पांच में आधे से ज्यादा छात्रों को कक्षा दो का ज्ञान नहीं रहता, वे गणित से घबराए हुए हैं। दाखिले के जो आंकड़े राज्य सरकारों के हैं, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार के, वे ‘असर’ के आंकड़ों के मुताबिक फर्जी हैं। विश्व बैंक की तीन दिन पहले जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत और पाकिस्तान सहित दक्षिण एशिया के कई देश हैं (श्रीलंका को छोड़ कर) जिनमें शिक्षक का ज्ञान उस प्राइमरी स्कूल के विद्यार्थी के ही समकक्ष होता है। रिपोर्ट के अनुसार सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत और पाकिस्तान के प्राइमरी स्कूल के शिक्षक को जब उसके द्वारा पढ़ाए जाने वाले विषय के कुछ सवाल दिए गए तो वे उन्हेंहल नहीं कर पाए, यानी उन्हें सामान्य जोड़-घटाव के सवाल नहीं आते थे। यही वजह है कि न तो शिक्षक को पढ़ने की सलाहियत है न ही विद्यार्थियों को पढ़ने में दिलचस्पी। शिक्षक का भी काम मात्र मध्याह्न भोजन बांटना होता है और अगर जुगाड़ लगे तो उसके मद में आए पैसे हजम करना। बाकी काम कागजों पर। हाल में बिहार के एक गांव में जब एक युवा ग्राम प्रधान ने पांचवीं कक्षा के विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने के लिए उन्हें स्वयं कतार में लगवाया तो चौंकाने वाला तथ्य सामने आया और पता चला कि एक कक्षा के 95 में से 91 विद्यार्थी अपना नाम नहीं लिख पाते। जाने-माने शिक्षाविद डॉ दौलत सिंह कोठारी ने 1964-66 में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष के रूप में अपनी चर्चित रिपोर्ट ‘राष्ट्रीय प्रगति के लिए शिक्षा’ तैयार की और यह रिपोर्ट देश की शिक्षा नीति का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बनी। पच्चीस वर्षों बाद जब उनसे पूछा गया कि अगर वे फिर से राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष बने तो क्या यही रिपोर्ट देंगे। उन्होंने बेबाकी से कहा ‘मैं उसमें आमूलचूल परिवर्तन करूंगा और नई रिपोर्ट का मूलमंत्र होगा- चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा। कोठारी की वेदना समझना मुश्किल नहीं है। जो छात्र-छात्राएं- नेहरूराष्ट्रपति थे या प्रधानमंत्री या इंदिरा गांधी पहले हुर्इं या नेहरू-नहीं जानते, वे अच्छे सॉफ्टवेयर इंजीनियर होंगे इसमें शक है। जो युवा महाकवि तुलसी को ‘रामायण’ सीरियल से जानता होगा उसके लिए मंदिर बने तो ठीक न बने तो ठीक, सीरियल चलते रहना चाहिए। कैसे इस युवा से सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद की जाएगी। दरअसल, बलात्कार के खिलाफ इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाना कुछ लोगों के उत्तम सोच की उपज तो हो सकता है पर इसे पूरे समाज की धारा नहीं मान सकते। अण्णा के आंदोलन की असमय मृत्यु इसका ताजा उदाहरण है। यह अपेक्षा करना कि ऐसी उथली शिक्षा देकर हम देश का चरित्र निर्माण करेंगे, जिसमें भ्रष्टाचार और बलात्कार नहीं होगा, अपने को मृगमरीचिका का शिकार बनाना होगा।  वे अच्छे नागरिक तो नहीं ही होंगे, खासकर ऐसे नागरिक जो देश में भ्रष्टाचार या बलात्कार के खिलाफ लंबे समय तक आवाज उठाएं, यानी न करें न करने दें। चूंकि शिक्षा मूल रूप से राज्य का विषय है इसलिए केंद्र सरकार राज्यों से अनुनय-विनय ही कर सकती है या वित्तीय मदद पर कुछ अंकुश लगा सकती है। लेकिन राज्य सरकारों की गैर-जिम्मेदाराना और कुछ हद तक आपराधिक उदासीनता देश के विकास के प्रयासों को नीचे लाने के लिए काफी होगी।
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अक्षर से परिचय

:Wed, 15 Oct 2014

अगर यह सच है तो सचमुच गंभीर चिंता की बात है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिसंख्य बच्चे अक्षर नहीं पहचान पा रहे हैं। यानी अक्षर से परिचय नहीं है। एक गैर-सरकारी संगठन के सर्वे में यह जानकारी दी गई है। हालांकि इस तरह के संगठनों का अपना भी मकसद रहता है, इसलिए पूरी तरह इस रिपोर्ट को सच मानने में किसी तटस्थ व्यक्ति को कठिनाई हो सकती है। रिपोर्ट आंशिक तौर पर सही हो तब भी सरकार और समाज के लिए सचेत होने का समय है। संयोग से जिस वक्त रिपोर्ट जारी हो रही थी, राज्य के मानव संसाधन मंत्री भी जलसे में मौजूद थे। उन्होंने सर्वे के निष्कर्षो पर सवाल नहीं उठाया। शिक्षा के स्तर में सुधार की घोषणा की। बेशक राज्य सरकार की ओर से 14 साल तक के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा देने के मोर्चे पर बहुत काम हुआ है। बच्चों को इतनी सुविधाएं दी जा रही हैं, जिनके सहारे वे बिना मां-बाप पर बोझ बने कम से कम हाई स्कूल तक की शिक्षा हासिल कर सकते हैं। स्कूलों में दोपहर का भोजन, किताब, पोशाक और साइकिल, इन साधनों के सहारे बच्चों की पढ़ाई आसान हुई है। कुछ साल पहले तक गरीबों के बच्चे लाज-शर्म के चलते स्कूल नहीं जा पाते थे, क्योंकि उनके पास ढंग के कपड़े नहीं होते थे। मां-बाप की हैसियत किताब खरीदने की नहीं होती थी। स्कूलों में शिक्षकों की कमी थी। नई बहाली के जरिये एक हद तक यह कमी दूर हो गई है। बावजूद वंचित तबके के सौ फीसद बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा रहे हैं। एक दौर में सरकार ने स्कूल के बाहर रह गए बच्चों का दाखिला कराने के लिए अभियान चलाया। आठ साल पहले इस काम में पुलिस की भी मदद ली गई। पुलिस के स्थानीय अधिकारी सड़क पर विचरण करने वाले या कूड़ा बीनने वाले बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाते थे। एक अच्छा अभियान बिना किसी ज्ञात कारण के बंद हो गया। मुश्किल यह भी है कि बड़ी संख्या में बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ दे रहे हैं। इसे रोकने के लिए कारगर उपाय नहीं किया जा रहा है। इस समय शिक्षा के मामले में सरकार के कामकाज का मूल्यांकन करें तो यह तथ्य सामने आता है कि वह धन तो दिल खोल कर खर्च कर रही है, मगर उसे रिटर्न की तनिक भी परवाह नहीं है। पढ़ाने में अक्षम शिक्षकों के प्रशिक्षण का इंतजाम नहीं है। उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती है। कार्रवाई हो तो वोट बैंक का बैलेंस गड़बड़ हो जाने का अंदेशा बना रहता है। अगर इरादा नेक हो तो शिक्षा में सुधार करना अधिक मुश्किल काम नहीं है। इस काम में सरकार के साथ समाज की भी भागीदारी जरूरी है। बस, एक बार तय हो जाए कि शिक्षा को राजनीतिक नफा-नुकसान के हिसाब से अलग रखा जाएगा। फैसला वोट बैंक बनाने के बदले इस उद्देश्य से हो कि शिक्षा का स्तर सुधारना है। हो सकता है कि लोकप्रिय सरकार को कठोर कदम के चलते वोटों का नुकसान हो, लेकिन दीर्घ अवधि के लिए कोई कड़ा फैसला राज्य के हित में तो होगा ही। इस समय शिक्षा में राजनीति पहले नम्बर पर है। पढ़ाई की बारी उसके बाद आती है। जरूरी यह है कि प्राथमिकता का यह क्रम बदल दिया जाए। चीजें अपने आप रास्ते पर आ जाएंगी।
[स्थानीय संपादकीय: बिहार]



समस्याओं के समाधान में युवा पीढ़ी




युवा संभालें बागडोर 

    Wed, 05 Feb 2014

देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा भ्रष्टाचार को देश के विकास में अहम रोड़ा बताना यह दर्शाता है कि शीर्ष पर रहे नागरिक भी इससे कितना आजिज आ चुके हैं। विगत दिवस जम्मू के पुलिस सभागार में उन्होंने न सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ सभी को आगे आने के लिए कहा बल्कि उनका यह कहना कि अगर युवा आगे आकर इसे समाप्त करने की बागडोर संभालते हैं तो इससे साबित होता है कि देश की समस्याओं के समाधान के लिए युवा पीढ़ी को अहम भूमिका निभानी होगी। यह सही है कि पिछले कुछ समय में केंद्र व राज्य सरकारों ने सिविल सोसायटी के आंदोलनों के बाद भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कई कानून बनाए, लेकिन अभी भी इनमें से कइयों को लागू नहीं किया जा सका या फिर कई प्रभावशाली साबित नहीं हो पा रहे हैं। यह सर्वविदित है कि केंद्र सरकार राज्यों में विकास के लिए जो फंड्स भेजती है, उनमें व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण इसका सही उपयोग नहीं हो पाता है। फलस्वरूप न सिर्फ विकास परियोजनाओं का लोगों को लाभ मिल पाता है बल्कि उनका दीर्घकालिक समय में भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सरकार को यह समझना होगा कि कैंसर का रूप ले चुके भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए समाज में नैतिकता को भी बढ़ावा देने की जरूरत है। अगर हम जम्मू-कश्मीर की बात करें तो राज्य के युवा मुख्यमंत्री ने पांच वर्ष पूर्व सत्ता संभालने के बाद लोगों में जो उम्मीदें जगाई थी, उन पर खरा नहीं उतर सके। जवाबदेही आयोग, सतर्कता आयोग, पब्लिक सर्विस गारंटी एक्ट बनाने का सरकार श्रेय जरूर लेती है, लेकिन इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जिसने अभी तक अपनी छाप छोड़ी हो। सरकार का यह दायित्व बनता है कि वह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए कड़े कदम उठाए और इसकी शुरुआत उच्च स्तर से हो। अगर सरकारी विभागों में उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार नहीं होगा तो निचले स्तर पर भी कोई साहस नहीं जुटा पाएगा। वहीं, युवा वर्ग को भी चाहिए कि वे पूर्व राष्ट्रपति की सलाह मानते हुए भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए स्वयं आगे आएं और इसकी शुरुआत अपने घर से करें ताकि देश पूरी तरह इस कैंसर से मुक्त होकर विकास के पथ पर आगे बढ़ सके।

युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति चिंताजनक




चिंताजनक प्रवृत्ति    

  Mon, 13 Jan 2014

युवाओं में लगातार बढ़ रही आत्महत्या की प्रवृत्ति चिंताजनक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया में इस तरह की सर्वाधिक घटनाएं भारत में हो रही हैं। जहां तक कारण की बात है तो इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि गलाकाट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में आगे निकलने की होड़ और किसी कारणवश इस होड़ में पिछड़ने के कारण मन-मस्तिष्क पर पड़ने वाला दबाव इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है। पंजाब भी इससे अछूता नहीं है और यहां भी यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। इसका एक उदाहरण गत दिवस जालंधर में भी देखने को मिला, जहां महेंद्रू मोहल्ले में एक पढ़े-लिखे नौजवान ने जान दे दी। हालांकि यह हैरान करने वाला है, क्योंकि पंजाब के लिए यह कहा जाता है कि यहां के लोग जिंदादिल होते हैं और परिस्थितियां चाहे कितनी भी विकट हों, उनका हंसते हुए सामना करना अच्छी तरह जानते हैं। जालंधर के 28 वर्षीय युवक के बारे में यह कहा जा रहा है कि उसने सीए की परीक्षा दी थी और इंटरनेट पर आए परिणाम में कम अंक देखकर निराशा में डूब गया। उसके सुसाइड नोट से अंदाजा लगाया जा रहा है कि करियर को लेकर वह इस कदर दबाव में आया कि पंखे से लटककर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। यह तो एक घटना है, स्थितियां किस कदर भयावह हो चुकी हैं इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सरकारी सर्वे के अनुसार मात्र भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही 2010 में हुई आत्महत्याएं वर्षभर की कुल मौतों का 3 प्रतिशत रही। 22 जून 2012 में एक अंग्रेजी अखबार में छपे लांसेट मेडिकल जरनल के सर्वे के अनुसार 15 से 29 साल की उम्र में आत्महत्याएं सबसे ज्यादा होती हैं, यानी युवाओं में यह आत्मघाती प्रवृत्ति सर्वाधिक है। देश-दुनिया के लिए तो यह चिंताजनक है ही, पंजाब को भी इससे सबक सीखने की जरूरत है कि आखिर हसदे-वसदे पंजाब, जिसकी जिंदादिली की पूरी दुनिया में मिसाल दी जाती है यहां यह रोग भला कैसे लग गया? परिजनों और नीतिनियंताओं को तो इसपर मंथन-मनन करना ही होगा, युवाओं को भी अपनी सोच को सकारात्मक बनाना होगा। उन्हें कांच के टुकड़े यानी दर्पण को देखने की नहीं, अपने मनदर्पण को देखने की जरूरत है ताकि जिंदगी सदा मुस्कुराती रहे।
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आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं चिंतनीय 

  Mon, 24 Feb 2014

आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं चिंतनीय हैं। नाराजगी, घरेलू कलह, सहनशक्ति का अभाव और भावनाओं में बहकर खुदकुशी जैसे कदम उठाना अब रोजाना की बात बन गई है। इसमें भी चिंताजनक बात यह है कि ऐसी प्रवृति कम उम्र के किशोरों में भी सामने आई है। सूचना तकनीक के इस युग में प्रतिस्पर्धा काफी बढ़ गई है। आगे निकलने की होड़ और अन्य कारणों से पिछड़ने की वजह से मन-मस्तिष्क पर पड़ने वाला दबाव भी आत्महत्या जैसे कारकों को जन्म दे रहा है। हिमाचल प्रदेश भी ऐसी घटनाओं से अछूता नहीं है और यहां पर यह प्रवृति लगातार बढ़ रही है। गत दिनों कुल्लू व ऊना में दो छात्रों ने खुदकुशी कर ली। हालांकि दोनों मामलों में कारणों का पता तो जांच के बाद ही चल पाएगा लेकिन इस तरह की घटनाएं समाज को झकझोर रही हैं। यह सही है कि प्रतिस्पर्धा के इस युग में हर व्यक्ति की कोशिश होती है कि वह किसी मुकाम तक पहुंचे लेकिन असफल रहने पर उनमें कुंठा इस कदर हावी हो जाती है कि वह आत्मघाती कदम उठाने से भी नहीं चूकता है। यह बात सभी को समझनी होगी कि आत्महत्या जैसा कदम उठाना किसी भी समस्या का हल नहीं है। असफलता के बाद ही सफलता मिलती है और रात के बाद ही सुबह आती है। अब परीक्षाओं का दौर शुरू होने वाला है। इन दिनों बच्चों पर पढ़ाई का बोझ काफी हो जाता है और कई बार वह तनाव में रहते हैं। ऐसे में परिजनों को चाहिए कि वे बच्चों को तनावमुक्त बनाने में उन्हें मानसिक रूप से तैयार करें। प्रतिस्पर्धा के इस युग में अभिभावकों की बच्चों के प्रति अपेक्षाएं बढ़ी हैं लेकिन उन्हें समझना होगा कि वे बच्चों पर किसी तरह का दबाव न बनाएं व उन्हें अपना भविष्य स्वयं चुनने दें। इसके साथ ही स्कूलों व कॉलेजों में बच्चों के लिए काउंसिलिंग भी की जानी चाहिए कि वह अपनी परीक्षाओं की तैयारी किस तरह करें। इसके लिए मनोचिकित्सकों की भी सहायता ली जानी चाहिए। बच्चों को भी चाहिए कि वे अपने ऊपर किसी तरह का दबाव महसूस न करें। परीक्षा की तैयारी के लिए ऐसी योजना बनाएं कि समय पर सिलेबस पूरा हो जाए। इसके लिए वे अपने शिक्षकों व परिजनों से भी समय-समय पर चर्चा करें। बच्चों को चाहिए कि वे किसी भी विपरीत परिस्थिति में हतोत्साहित न हों और खुद पर यकीन बनाए रखें तभी उन्हें मंजिल हासिल होगी।

तनाव को न पालें 
  Mon, 20 Jan 2014

समाज में बढ़ता मानसिक तनाव युवाओं पर इस कदर हावी होता जा रहा है कि वे इससे मुक्ति पाने के लिए मौत को गले लगाने से भी नहीं चूक रहे हैं। जरा सी नाराजगी, घरेलू कलह, सहनशक्ति का अभाव और भावनाओं में बहकर खुदकुशी जैसे कदम उठाना अब रोजाना की बात हो गई है। विगत दिवस शहर के बिक्रम चौक क्षेत्र में तवी पुल से एक युवती ने छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। पिछले एक माह में जम्मू संभाग में आत्महत्या के करीब तीस मामले सामने आए हैं, जो चौकाने वाले हैं। इन आंकड़ों ने मनोचिकित्सकों को समाज में बढ़ रहे तनाव से निपटने के उपाय ढूंढने को मजबूर कर दिया है। प्रतिस्पर्धा के इस युग में हर व्यक्तिकी कोशिश होती है कि वह किसी मुकाम तक पहुंचे। असफल रहने पर उनमें कुंठा हावी हो जाती है। कई मामलों में बेरोजगारी, गरीबी व घरेलू कलह भी एक कारण होता है लेकिन इन सबसे छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या जैसा कदम उठाना कोई हल नहीं है। परेशानियां और दिक्कतों का नाम ही जिंदगी है। रात के बाद उजियारा यही जिंदगी का सच है। समाज को तनाव मुक्तबनाने के लिए माता-पिता का यह दायित्व बनता है कि बच्चों को उतना ही स्नेह दें जिससे वह बिगड़ें नहीं। इसके अलावा बच्चों की संगत पर भी विशेष ध्यान रखने की जरूरत है। कई बार अपेक्षाओं पर खरा न उतरने पर छात्र आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं। प्रतिस्पर्धा के इस युग में माता-पिता की बच्चों के प्रति अपेक्षाएं बढ़ी हैं, जो गलत है। माता-पिता को भी समझना होगा और उन पर किसी प्रकार का मानसिक दबाव बनाने से बेहतर होगा कि बच्चे को अपना भविष्य स्वयं चुनने दें। यह खुशी की बात है कि पिछले कुछ वर्षो से विद्यार्थियों की सोच में काफी बदलाव आया है और अब वह केवल डॉक्टर व इंजीनियर ही नहीं बनना चाहते बल्कि उनका लक्ष्य इससे भी काफी आगे है। किसी भी लक्ष्य को हासिल करने के लिए उम्र कभी आड़े नहीं आती। ऐसे में युवा जिंदगी में असफल भी रहते हैं तो उनमें हीनभावना नहीं आनी चाहिए। सतत् प्रयासों से ही कामयाबी आपके कदम चूमती है। अभिभावकों को भी बच्चों की मानसिक संवेदनाओं को समझना होगा क्योंकि मौजूदा वक्तमें बच्चे काफी संजीदा होते हैं।
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जिंदगी का मोल समझें

Sun, 05 Oct 2014

आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं से जाहिर होता है कि युवाओं पर तनाव किस तरह हावी हो रहा है। दुर्भाग्य की बात यह है कि लोग तनाव से खुद को उबार नहीं पाते हैं और वे मौत को गले लगा लेते हैं। बात अगर जम्मू और उसके आसपास की करें तो पिछले तीन दिन में एक किशोरी सहित चार लोगों ने जिंदगी को ठुकराकर आत्महत्या कर ली। विडंबना यह है कि भागदौड़ की जिंदगी में लोग तनाव को बेवजह पाल रहे हैं। कई युवा जीवन में घटित ऐसे वाक्यों को अपने दिलों दिमाग पर इस कदर हावी कर लेते हैं जिससे वे अपना ध्यान दूसरी ओर नहीं लगा पाते हैं, जो कई बार उनके जीवन के लिए घातक साबित हो रहा है। जरा सी नाराजगी, घरेलू कलह, सहनशक्ति का अभाव और भावनाओं में बहकर खुदकुशी जैसे कदम उठाना अब रोजाना की बात बन गई है। प्रतिस्पर्धा के इस युग में बच्चों पर पढ़ाई का बोझ और ऊपर से माता-पिता का दबाव भी कई बार भारी पड़ता है। इसमें कोई शक नहीं कि हर माता-पिता यह चाहते हैं कि उनके बच्चे किसी मुकाम पर पहुंचें, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि बच्चे पर बेवजह दबाव बनाया जाए। आजकल के युवा काफी समझदार और भविष्य को लेकर काफी फोकस हैं। इसलिए युवाओं को अपना भविष्य तय करने के लिए अभिव्यक्ति की आजादी होनी चाहिए कि वह किस क्षेत्र में जाना चाहते हैं। तनाव के कई कारण हैं जिनमें बेरोजगारी, गरीबी व घरेलू कलह भी एक कारण होता है। सफल इंसान वही होता है जो मुश्किल और जटिल हालात में भी स्थिति का सामना कर मुसीबतों का समाधान ढूंढे। जो व्यक्ति हालात से लड़ना सीख जाएगा वह जिंदगी में कभी भी विफल नहीं रहता। रात के बाद उजाला यही जिंदगी का सच है। माता-पिता का यह दायित्व भी बनता है कि बच्चों को उतना ही स्नेह दें, जिसमें वह बिगड़ें नहीं। इसके अलावा बच्चों की संगत पर भी विशेष ध्यान रखने की जरूरत है। किसी भी लक्ष्य को हासिल करने के लिए उम्र कभी भी आड़े नहीं आती। अभिभावकों को बच्चों की मानसिक संवेदनाओं को समझना होगा।


बुजुर्ग माता-पिता की उपेक्षा




  • 50 प्रतिशत से अधिक बुजुर्ग 

  • अपनी संतानों से दु:खी 

नशे की लत में युवा




भटकती युवा पीढ़ी

Thu, 21 Aug 2014

आज के युवा देश का भविष्य हैं। वे युवा, जिनके कंधों पर देश-प्रदेश को विकास के पथ पर अग्रसर करने का भार होगा, जिन्होंने नेता, इंजीनियर, शिक्षक, वैज्ञानिक बनकर देश की सेवा करनी है। जरूरत है उन्हें सही राह पर ले जाने और उनका बेहतर मार्गदर्शन करने की, इनकी ऊर्जा को सकारात्मक कार्यो में लगाए जाने के प्रयास करने की। लेकिन कुछ अर्से से हिमाचल में ऐसे मामले सामने आने लगे हैं, जिससे चिंतित होना लाजिमी हो जाता है। नशे की लत में युवा डूबते जा रहे हैं और राह भटकने वालों की तादाद भी कम नहीं है। स्कूली विद्यार्थियों के बैग से आपत्तिजनक सामग्री मिलना व एक स्टेशनरी की दुकान से नशे का सामान बरामद होना सुखद संकेत नहीं हैं। चोरी, लूटपाट और ऐसे कार्यो में नाबालिग संलिप्त पाए जा रहे हैं, जो समाज को झकझोरने के लिए काफी हैं। दुखद है कि युवा पीढ़ी राह भटककर उस राह पर चल रही है, जिसमें अंधेरे के सिवा कुछ नहीं है। उनकी ऊर्जा उन कार्यो में व्यर्थ जा रही है, जिससे रचनात्मक तौर पर कुछ हासिल नहीं होने वाला। नशे की लत से घिरे युवा न अपना भला कर रहे हैं और न ही समाज का। युवा पीढ़ी को सही मार्गदर्शन की जरूरत है लेकिन समाज विरोधी ताकतें आसान लक्ष्य मानकर इन्हें पथभ्रष्ट करने पर तुली हैं। यह लोग युवाओं को आसानी से अपने चंगुल में फंसा लेते हैं और इनके जरिये अपनी नापाक गतिविधियों को चलाते हैं। प्रदेश सरकार ने शिक्षण संस्थानों के निकट तंबाकू उत्पाद बेचने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा रखा है लेकिन इस पर मंथन करने की जरूरत है कि इस आदेश का कितना पालन हुआ है। आदेश तो यह भी हैं कि दुकानदार बच्चों को तंबाकू उत्पाद नहीं बेचेंगे लेकिन इस पर भी अमल कितना हो पाया है यह समाज को समझना होगा। सार्वजनिक स्थानों पर धूमपान प्रतिबंधित है लेकिन इस पर भी पूरी तरह अमल नहीं हो पाया है। युवा पीढ़ी का नशे की दलदल में फंसने का एक कारण समाज भी है। अकसर कहा जाता है कि पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में युवा पीढ़ी नैतिक-अनैतिक में अंतर नहीं समझ पा रही है। अभिभावकों के साथ-साथ नीति नियंताओं को इस गंभीर एवं ज्वलंत मुद्दे पर गहन मंथन करना होगा। बच्चों को नैतिक शिक्षा आचरण से सिखाने के साथ-साथ संस्कारों का ज्ञान देना बहुत जरूरी है। यदि अब भी नहीं संभले तो गंभीर परिणाम भुगतने के लिए समाज को तैयार रहना होगा।
[स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश]

बेरोजगार युवा



20 करोड़ बेरोजगार

नवभारत टाइम्स  Jul 4, 2014, 

इस समय दुनिया भर में करीब 20 करोड़ बेरोजगार हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक इनमें सबसे बड़ा हिस्सा युवाओं का है। दरअसल, छह वर्ष पूर्व के वित्तीय संकट के बाद अर्थव्यवस्था सुधरने की गति खासी धीमी रही है। इस मामले में सबसे खराब हालत दक्षिण अफ्रीका की है, लेकिन भारत का हाल भी उससे ज्यादा अलग नहीं है। 2011 की जनगणना के मुताबिक कामकाजी उम्र की शुरुआत, यानी 15 से 24 बरस के बीच के 20 फीसदी से भी अधिक भारतीय बेरोजगार हैं। इनमें से कुछ लोग निकट भविष्य में रोजगार मिलने की उम्मीद कर सकते हैं, लेकिन 30 से 34 साल की पक्की उम्र में रोजगार मिलने की संभावना नहीं के बराबर होती है, इस आयु वर्ग में भी बेरोजगारी की दर 6 प्रतिशत दर्ज की गई है। देश के कुल 12 फीसदी लोग बेरोजगारी की चपेट में बताए गए हैं। ध्यान रहे, ये आंकड़े तीन साल पहले के हैं और बीच की अवधि में इनकी भयावहता कुछ और बढ़ चुकी होगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेरोजगारी एक जटिल समस्या बनती जा रही है। शिक्षा और रोजगार के बीच कोई संतुलन ही नहीं बन पा रहा है। यह सब अचानक नहीं हो गया। आर्थिक विकास दर आठ फीसदी रहने के बावजूद अर्थव्यवस्था और रोजगार के बीच का तालमेल पिछले दशक में ही गड़बड़ा गया था। लेबर मिनिस्ट्री की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 4.7 करोड़ बेरोजगार युवाओं में 2.6 करोड़ पुरुष और 2.1 करोड़ महिलाएं हैं। इधर यह भी साफ हुआ है कि महिलाएं अब शादी के बाद घर नहीं बैठना चाहतीं। 20 से 29 के की उम्र की काम चाहने वाली महिलाओं की तादाद पुरुषों के बराबर है। लेकिन काम के मौके दोनों के लिए ही काफी कम हैं। 29 साल की उम्र तक हर तीन में से एक ग्रेजुएट बेरोजगार है। यह शिक्षित बेरोजगारी युवाओं को विकासशील मध्यवर्ग का हिस्सा बनने से तो रोक ही रही है, उनमें कुंठा भी पैदा कर रही है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि भारत में बेरोजगारी के आंकड़े विकसित देशों की तरह समय के साथ नहीं चलते। यहां बेरोजगारी का अंदाजा जनगणना से ही लग पाता है, जो हर दस साल के बाद होती है। ऐसे में बेरोजगारी राजनीति के लिए तो दूर, समाज के लिए भी किसी गंभीर मुद्दे की शक्ल नहीं ले पाती।
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बढ़ती बेकारी का हल खोजें

29, SEP, 2014, MONDAY 12:24:49 AM

आर्थिक विकास के आंकड़े चाहे जो कहते हों पर यह भी एक कटु सच्चाई है कि बढ़ती बेकारी की समस्या का हल खोजने की दिशा में नई आर्थिक नीतियां सफल नहीं रही हंै। पूरे राष्टï्रीय परिपे्रक्ष्य में यह देखा जा सकता है। विकास दर की दृष्टि से देश के अग्रणी राज्यों में शुमार छत्तीसगढ़ में भी बेकारी तेजी से बढ़ रही है। राज्य जनशक्ति नियोजन विभाग के आंकड़े इसकी गवाही देते हैं। हालांकि उद्योग-व्यापार के क्षेत्र में प्रगति का पता इस बात से चलता है कि राज्य का वार्षिक बजट बढ़कर 50 हजार करोड़ के आंकड़े के आसपास पहुंचने वाला है। संचालनालय रोजगार एवं प्रशिक्षण विभाग के रोजगार एवं मार्गदर्शन केन्द्रों में हर साल करीब ढाई लाख शिक्षित, प्रशिक्षित युवा पंजीकृत हो रहे हैं, जिन्हें रोजगार की तलाश है। यह संख्या बढ़कर 15 लाख के करीब पहुंच गई है। सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसरों की अपनी सीमाएं हैं, लेकिन निजी व सार्वजनिक क्षेत्र में भी स्थिति बहुत संभावनापूर्ण दिखाई नहीं देती। बढ़ती बेकारी को दूर करने के लिए जरुरी है कि सरकार रोजगार की नए अवसरों के सृजन की संभावनाओं की तलाश के काम में तेजी लाए और सरकारी प्रोत्साहन देकर विपुल मानव संसाधन को राज्य के विकास की योजनाओं से जोड़े। आज का दौर व्यावसायिक शिक्षा का है और बड़ी संख्या में राज्य के युवा इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर निकल रहे हैं। बड़ी तादाद ऐसे बेरोजगारों की भी है, जिन्होंने आईटीआई से विभिन्न ट्रेडों  का प्रशिक्षण लिया है। सरकार ने स्वयं के रोजगार-धंधे के लिए आजीविका कालेज भी खोले हैं। ऐसे कालेजों से कौशल प्रशिक्षण लेकर निकलने वाले युवाओं को भी स्वयं का व्यवसाय शुरु करने के लिए आर्थिक सहायता की आवश्यकता होगी। राज्य में निजी क्षेत्र के उद्योगों में स्थानीय बेरोजगारों की यह कहकर उपेक्षा की जाती है रही है कि उनमें कौशल और योग्यता की कमी है। दरअसल, यह स्थानीय बेरोजगारों को अवसर न देने का गढ़ा गया बहाना है। यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि किसी भी उद्योग को इसी शर्त पर मंजूरी दी जाएगी कि वह स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसरों का लाभ दे। अब तक यह भू-विस्थापित के मामलों में ही अनिवार्य है, फिर भी उद्योग कोताही बरतते रहे हैं। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने राष्टï्रीय खनिज विकास निगम के बस्तर में स्थापित हो रहे इस्पात संयंत्र में कम से कम निचली श्रेणी के पदों को स्थानीय बेरोजगारों से ही भरे जाने का अनुरोध निगम के सीएमडी से किया था। इस अनुरोध को कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसरों का लाभ दिलाने के लिए रोजगार मेलों का आयोजन एक अच्छा प्रयास था, लेकिन नियोक्ताओं ने सिर्फ खानापूर्ति करने की कोशिश की। रोजगार मेलों में पिछले दो वर्षों से 10 हजार बेरोजगारों को अवसर दिलाने का दावा किया गया है। अधिकारियों को पता लगाना चाहिए कि इनमें से कितने अभी तक कार्यरत हैं और कितने काम छोड़ चुके हैं। इन मेलों में प्राय: को बीमा, निवेश के अभिकर्ता और निजी सुरक्षा कंपनियों में गार्ड की नौकरी पर रखा गया था, जहां न्यूनतम वेतन कानूनन का भी ठीक से पालन नहीं किया जाता। बढ़ती बेकारी को रोकने के लिए एक ऐसा अभियान शुरु किए जाने की आवश्यकता है, जिससे कौशल व योग्यता के आधार पर मानव संसाधन का नियोजन हो सके।


अशिक्षित निरक्ष्रर युवा



  1. भारत में निरक्ष्रर युवाओं की
  2.  तादाद सबसे ज्यादा : रिपोर्ट  


 Jan 30, 2014

 पीटीआई, यूएन
दुनिया में निरक्ष्रर युवाओं की सबसे ज्यादा आबादी भारत में है, यह कहना है संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की एक रिपोर्ट का। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में ऐसे युवाओं की तादाद 28 करोड़ 70 लाख है और यह संख्या दुनिया के अशिक्षित निरक्ष्रर युवाओं का 37 प्रतिशत है। यूएन का कहना है कि इससे पता चलता है कि भारत में अमीर और गरीब के बीच शिक्षा को लेकर कितनी असमानताएं हैं। 2013/14 एजुकेशन फॉर ऑल ग्लोबल मॉनिटरिंग नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया कि भारत की साक्षरता दर साल 1991 के 48 प्रतिशत से बढ़कर साल 2006 में 63 प्रतिशत हो गई। लेकिन इस दौरान जनसंख्या में हुई बढ़ोतरी की वजह से किसी तरह का फायदा नहीं हुआ और निरक्ष्रर युवाओं की तादाद में कोई कमी नहीं आई। इस रिपोर्ट को युनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (यूनेस्को) ने तैयार किया है। रिपोर्ट में आगे कहा गया कि भारत की सबसे अमीर युवा महिलाओं को सार्वभौमिक साक्षरता मिल चुकी है, लेकिन गरीब महिलाओं को इस मुकाम तक पहुंचने में साल 2080 तक का वक्त लग जाएगा। इस लिहाज से भारत में मौजूद ये निराशाजनक स्थितियां दिखाती हैं कि सबसे ज्यादा जरूरतमंद लोगों तक पर्याप्त सहयोग नहीं पहुंचा है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि वैश्विक स्तर पर शिक्षा की समस्या के कारण सरकारों को हर साल 129 अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है। इसमें कहा गया कि दुनिया के दस देशों में निरक्ष्रर लोगों की तादाद 55 करोड़ 70 लाख है और यह कुल निरक्ष्रर लोगों की संख्या का 72 प्रतिशत है। दुनिया भर में प्राइमरी एजुकेशन पर जो खर्च किया जाता है उसका 10 प्रतिशत शिक्षा की खराब क्वॉलिटी की वजह से बर्बाद हो जाता है। इस स्थिति की वजह से गरीब देशों में, हर चार में से एक युवा एक वाक्य पढ़ने में भी नाकाम रहता है। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के सबसे अमीर राज्यों में से एक, केरल में हर शख्स के एजुकेशन पर 685 डॉलर खर्च किया जाता है। 


पढ़ाई पर प्रश्न   

 Thursday, 30 January 2014

जनसत्ता 30 जनवरी, 2014 : पिछले कुछ सालों में सरकारी स्तर पर कराए गए अध्ययनों से लेकर ‘प्रथम’ जैसे गैर-सरकारी संगठनों की सालाना रिपोर्टों में स्कूली शिक्षा की दयनीय हालत सामने आती रही है। अब ‘सबके लिए शिक्षा’ विषय पर यूनेस्को की ग्यारहवीं वैश्विक निगरानी रिपोर्ट में भी जो तस्वीर उभरी है, वह बताती है कि भारत में शिक्षा के प्रति सरकारों का रवैया कितना लापरवाही भरा है। इन सभी रिपोर्टों ने पांचवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के सीखने की गति को लेकर घोर चिंताजनक तथ्य दिए हैं। कमजोर तबकों के नब्बे फीसद बच्चे अगर चार साल की स्कूली पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के बावजूद लगभग निरक्षर हैं, तो हम किस आधार पर अपनी शिक्षा व्यवस्था को संतोषजनक कह सकते हैं? स्कूली शिक्षा में महाराष्ट्र और तमिलनाडु अपेक्षया अच्छी स्थिति में माने जाते हैं। पर यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट बताती है कि महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में पढ़ने वाले चौवालीस फीसद बच्चे दो अंकों का घटाव नहीं कर पाते हैं। तमिलनाडु के संदर्भ में यह आंकड़ा  तिरपन फीसद फीसद बैठता है।  सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई के माहौल से लेकर शिक्षकों की कमी आदि अनेक वजहों से शैक्षिक गुणवत्ता के स्तर में गिरावट एक बड़ी समस्या बनती गई है। बिहार में अड़तीस और झारखंड में बयालीस फीसद शिक्षक रोजाना किसी न किसी बहाने गैरहाजिर रहते हैं। ऐसे में हम शैक्षिक गुणवत्ता की कितनी उम्मीद कर सकते हैं? यह समस्या महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में भी बनी हुई है। यह बेवजह नहीं है कि समृद्ध राज्यों में भी बेहद गरीब घरों के बच्चों और खासकर लड़कियों के बीच सीखने की क्षमता बेहद कमजोर बनी हुई है। दरअसल, मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा कानून लागू होने के बाद सरकारों का जोर स्कूलों में दाखिला बढ़ाने पर रहा है और देश के तमाम इलाकों में इसमें कामयाबी भी दर्ज हुई। लेकिन सिर्फ दाखिलों में इजाफा शैक्षिक तस्वीर में सुधार का मानक नहीं हो सकता। खुद एक सरकारी अध्ययन में दाखिलों का फर्जीवाड़ा उजागर हो चुका है, जिसमें राज्यों ने केंद्र से ज्यादा अनुदान लेने की मंशा से नामांकन को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया।  यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक पर्याप्त और प्रशिक्षित शिक्षकों के अभाव के चलते सीखने का यह संकट अगली कई पीढ़ियों को नुकसान पहुंचाता रहेगा और इसकी सबसे ज्यादा मार वंचित तबकों के लोगों पर पड़ेगी। उदाहरण के तौर पर उप-सहारा अफ्रीकी देशों की स्थिति को देखा जा सकता है जहां गरीब घरों के पांच में से सिर्फ एक बच्चा प्राथमिक शिक्षा पूरी कर पाता है; युवा आबादी का एक चौथाई हिस्सा एक वाक्य भी ठीक से नहीं पढ़ पाता। तो क्या हमारे देश के नीति-नियंताओं को भविष्य के संकट का अंदाजा नहीं है? क्या केवल बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने या शिक्षा का अधिकार कानून बना देने से समानता आधारित शिक्षित समाज का सपना पूरा किया जा सकेगा? शिक्षा अधिकार कानून में दो प्रमुख कसौटियां रखी गई थीं। एक यह कि 2013 तक स्कूलों में सभी ढांचागत सुविधाएं मुहैया करा दी जाएंगी। समय-सीमा पूरी हो जाने के बावजूद यह नहीं हो सका है। दूसरी शर्त अपेक्षित शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात सहित शैक्षिक गुणवत्ता से संबंधित थी जो 2015 तक पूरी हो जानी चाहिए। मगर मौजूदा हालत को देखते हुए इस कसौटी का भी क्या हाल होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है।

देश की राजनीति में युवा



उभरती शक्ति पर निगाह   

  Tue, 28 Jan 2014

आगामी चुनाव देश की राजनीति में युवाओं के केंद्र में आगमन का संदेशवाहक है। देश का भविष्य युवाओं पर निर्भर है। 18-23 आयु वर्ग के करीब 15 करोड़ मतदाता आगामी चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। केवल यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम देश के सबसे बड़े जनसांख्यिकी वर्ग की जरूरतों पर ध्यान दें, बल्कि यह भी बहुत जरूरी है कि उन्हें राजनीतिक प्रक्त्रिया में शामिल करें ताकि देश के भविष्य के नियंता बनने के लिए उनका मार्ग प्रशस्त हो सके। इस संबंध में कांग्रेस का स्पष्ट मत है कि युवाओं की भागीदारी को केंद्र में रखे बिना कोई भी योजना टिकाऊ नहीं हो सकती और उसका विफल होना अवश्यंभावी है। कांग्रेस के 128 साल के शानदार इतिहास में इस माह बेंगलूर में कांग्रेस पार्टी के यूथ मेनिफेस्टो 2014 पर विचार एक ऐतिहासिक क्षण था। देश के अलग-अलग भागों और विभिन्न वगरें से भारत के भविष्य को नया आकार देने के लिए युवा एकजुट हुए। इनमें किसानों से लेकर उद्योगपति और देश के शीर्ष संस्थानों के छात्र भी शामिल हुए। विकास के अगले चरण को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व के साथ अपने विचार, अनुभव और आकांक्षाएं साझा कीं।  कांग्रेस की यह नवीनतम पहल आकांक्षाओं से लबरेज युवाओं को नया प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराएगी। अतीत की तमाम पहलों से जुदा हमारा घोषणापत्र कमरे में बैठी किसी कमेटी द्वारा तैयार बुकलेट नहीं होगा, बल्कि यह भारत के लोगों द्वारा सामूहिक रूप से तैयार किया जाएगा। यह कदम पार्टी में राहुल गांधी द्वारा किए जा रहे परिवर्तनों के तहत उठाया जा रहा है। अगर कांग्रेस सवा सौ साल से भी अधिक समय से देश की सेवा करती आ रही है तो इसलिए, क्योंकि यह एक ऐसा संगठन है जो हमेशा सीखता रहता है। कांग्रेस बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिवेश और जन आकांक्षाओं के साथ खुद को बदलती रही है। अतीत में अपनी जड़ों को मजबूती से जमाए हुए यह परिवर्तन को आत्मसात करती है और इस प्रकार भारत के अतीत को इसके चमकदार भविष्य से जोड़ती है।  नए भारत की आवाज पुरानी नहीं हो सकती। आखिरकार भारत की औसत आयु महज 24 साल है। हमें भारत के युवाओं की रचनात्मक प्रतिभा को संवारने में सहायता प्रदान करनी ही चाहिए। हमें युवाओं की आकांक्षा के आधार पर उनके लिए भारत निर्माण करना है। युवा वर्ग तब तक तरक्की नहीं कर सकता जब तक हम उसकी आकांक्षाओं पर ध्यान केंद्रित नहीं करेंगे। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि हम युवा भागीदारी के बिना एक स्थायी तंत्र का निर्माण नहीं कर सकते। चुनाव में किसी मसीहा को नहीं चुना जाता है जो हमारी तरक्की के वादे करता हो। निर्वाचित जनप्रतिनिधि ऐसा होना चाहिए जिसके पास देश को बदलने की दृष्टि और क्षमता हो और जिसके पास ऐसे विचार हों जो देश को नई दिशा में ले जा सके।  भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, किंतु हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इसे और व्यापक कैसे बनाया जाए। इसके लिए हमें ऐसी योजनाएं और नीतियां तैयार करनी चाहिए कि अगली सरकार आखिरी व्यक्ति की आवाज भी सुन सके। लोकतंत्र को आम जन तक ले जाने का परिणाम होगा सुशासन। इसी से सभी नागरिक गरिमा के साथ जीवन जी सकते हैं और यह सुनिश्चित हो सकता है कि उनकी आवाज सुनी जा सके। प्रत्येक भारतीय, चाहे उसका जो भी पंथ, रंग, क्षेत्र, जाति, भाषा हो सरकार में उसकी बात सुनी जाएगी।  अन्य दल किसी खास पंथ, धर्म, क्षेत्र, भाषा या जाति की आवाज उठाते हैं, लेकिन इसके विपरीत कांग्रेस में समग्र भारत के विभिन्न वगरें के लोगों को साथ लेकर चलने की क्षमता है। प्रत्येक कांग्रेसी इस महती जिम्मेदारी को निभाने के काबिल है, जो हमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आजाद जैसे नेताओं से विरासत में मिली है।  मेरे ख्याल से एक बार में घोषणापत्र तैयार नहीं किया जा सकता। यह लगातार चलने वाली प्रक्त्रिया है। यह सरकार और नागरिकों के अनुभवों का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रक्त्रिया से युवाओं को जोड़ना दरअसल उन्हें यह अवसर प्रदान करना है कि वे भारत के समक्ष मौजूदा चुनौतियों को समझ-परख सकें। युवा हमारे देश की सबसे बड़ी ताकत हैं और यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि इस ताकत का हर संभव तरीके से ध्यान रखा जाए।  आजादी के बाद अनेक विश्लेषकों ने घोषणा की थी कि भारत का जल्द ही पतन हो जाएगा। लेकिन साढ़े छह दशक से अधिक का समय बीतने के बाद भी न केवल हम लोकतंत्र को बचा पाए हैं, बल्कि हमने इसे कहीं अधिक मजबूत भी किया है। 1948 में जनरल क्लाउड ओचिंलेक ने घोषणा की थी कि एक देश के रूप में भारत के विखंडन की शुरुआत हो चुकी है। 1961 में एल्डाउस हक्सले ने लिखा था कि नेहरू के जाते ही सरकार सैन्य तानाशाही में बदल जाएगी। 1967 में लंदन के द टाइम्स अखबार ने लिखा था कि लोकतांत्रिक ढांचे में भारत के विकास का महान अनुभव विफल हो चुका है। जल्द ही भारत चौथे और निश्चित रूप से आखिरी आम चुनाव के लिए मतदान करेगा। जाहिर है भारत में गहरे तक पैठे लोकतंत्र ने इन तमाम विद्वानों को झुठला दिया है। चौथे की बात तो छोड़िए इस साल देश में 16वां आम चुनाव होने जा रहा है। लोकतंत्र में लोगों की भागीदारी को मजबूती प्रदान करके कांग्रेस पार्टी और इसके नेताओं ने भारत को एकता के सूत्र में बांधे रखा है।  हमारे संस्थापकों ने भारत के राजनीतिक तंत्र का आधार बालिगों के मताधिकार को बनाया है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो अन्य पुराने लोकतंत्र भी लंबे संघर्ष के बाद हासिल कर पाए हैं। हमारे देश में महान नेताओं ने गरीब और कमजोर समाज में लोकतंत्र की मजबूत आधारशिला रखी, जबकि राजनीतिक विश्लेषक इसके उलट भविष्यवाणी कर रहे थे। यह अधिकांश विदेशी विश्लेषकों के लिए हैरत की बात है कि हमारा लोकतंत्र बहुसंख्यकतंत्र में नहीं बदला। इसके बजाय भारत जैसे विविधता से भरे देश में इसने पंथनिरपेक्षता को पोषित किया। आजादी के साथ ही कांग्रेस और कांग्रेसनीत सरकारों ने गणतंत्र के सिद्धांतों में विश्वास रखते हुए लोकतंत्र को अधिक व्यापक और गहरा किया है। पार्टी के घोषणापत्र को तैयार करते समय देश के लोगों की सलाह को महत्व देने वाला कदम इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है। महात्मा गांधी ने लिखा था कि एक सच्चा लोकतंत्र केंद्र में बैठे 20 लोगों द्वारा नहीं चलाया जा सकता। इसे हर गांव के लोगों द्वारा नीचे से चलाया जाना चाहिए। इस लक्ष्य ने हमेशा कांग्रेस का मार्गदर्शन किया है। 2014 के चुनाव के लिए जनता का घोषणापत्र तैयार करना इस दिशा में पार्टी का एक और कदम है।