Sunday 7 September 2014

शिक्षा की गुणवत्ता




किसी भी नौकरी के काबिल  नहीं हैं

 47 प्रतिशत भारतीय स्नातक 

  2014-01-02

वर्ष 2013 के दौरान रोजगार पाने की पात्रता संबंधी किए गए एक अध्ययन के अनुसार यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है कि इस वर्ष स्नातक होकर निकले लगभग 47 प्रतिशत भारतीय युवा रोजगार के किसी भी क्षेत्र में नौकरी पाने के काबिल नहीं हैं। इनमें से अधिकांश युवा अंग्रेजी भाषा तथा अन्य कौशलों में कोरे और बेहद कमजोर पाए गए। सर्वे में शामिल युवाओं में से सिर्फ 2.59 प्रतिशत ही अकाऊंटिंग जैसे कामों के लिए उपयुक्त पाए गए जबकि 15.88 प्रतिशत युवा बिक्री से संबंधित सैक्टर और 21.37 प्रतिशत युवा बिजनैस प्रोसैस आऊटसोर्सिग सैक्टर में नौकरी के उपयुक्त पाए गए।  इस अध्ययन के अनुसार 3 वर्षीय डिग्री कोर्स करने वाली महिलाएं रोजगार पाने की पात्रता के मामले में पुरुषों के बराबर या उनसे बेहतर पाई गईं। अध्ययन के अनुसार अंग्रेजी, कम्प्यूटर और अन्य सामान्य कौशलों में कमजोर होना रोजगार प्राप्त करने में मुख्य बाधा है। उक्त अध्ययन भारत में नीचे की कक्षाओं से लेकर ऊपर की कक्षाओं तक शिक्षा प्रणाली की बदहाली व इसमें व्याप्त बुनियादी कमजोरियों का मुंह बोलता प्रमाण है। भारत में शिक्षा नीति में आमूल चूल-सुधार और शिक्षा के बुनियादी ढांचे को मजबूत करके ही इसका उपचार संभव है।


कागज पर जारी कागजी पढ़ाई

   नवभारत टाइम्स | Jan 30, 2014

एजुकेशन फॉर ऑल (ईएफए) के तहत यूनेस्को की ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में चार साल तक स्कूल जाने के बावजूद 90 फीसदी गरीब बच्चे कुछ नहीं सीख पाते। 30 फीसदी बच्चे पांच-छह साल की स्कूली पढ़ाई के बावजूद सामान्य जोड़-घटाना नहीं जानते। जहां तक ग्रामीण महिलाओं में साक्षरता का प्रश्न है, रिपोर्ट बताती है कि अभी यह काम पूरा होने में 66 बरस और लग सकते हैं।  देश का मध्यवर्ग अपने बच्चों को जिन सेंट्रल बोर्ड स्कूलों में पढ़ाकर संतुष्ट है, वे पूरी तरह निजी हाथों में हैं, लिहाजा देश के 85 फीसदी बच्चों के लिए उनकी कोई उपयोगिता नहीं है। सरकारी नियंत्रण में चलने वाली प्राइमरी शिक्षा की गुणवत्ता देश के लिए गहरी चिंता का विषय होनी चाहिए, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों की खींचतान के बीच इसे अब अजेंडा से बाहर ही मान लिया गया है। केंद्र द्वारा राइट टु एजुकेशन का एलान करने के बाद तो बुनियादी तालीम पूरी तरह यतीम हो चुकी है? केंद्र सरकार को सिर्फ स्कूलों में भर्ती के आंकड़ों से मतलब है और राज्य सरकारें सोचती हैं कि इस मामले में ज्यादा मशक्कत करने से उनका वोट बैंक तो बढ़ने वाला नहीं है, उल्टे शिक्षक यूनियनों के नाराज हो जाने का खतरा अलग है।  बचपन से ही रोजी-रोटी के काम में मां-बाप का हाथ बंटाने को मजबूर गरीब बच्चों को स्कूल तक खींच कर लाने के लिए बनाई गई मिड डे मील योजना खुद में एक राष्ट्रव्यापी स्कैंडल बनकर रह गई है। कभी इसमें खाना खाकर बच्चों के बीमार बनने की खबर आती है तो कभी शिक्षक पढ़ाई-लिखाई का स्तर गिरने का ठीकरा खाना पकाने और परोसने की एडिशनल जिम्मेदारी पर थोपते नजर आते हैं। यूनेस्को की यह रिपोर्ट ऐसी ही बीमारियों का सम्मिलित नतीजा है। असल सवाल यह है कि हम इससे मिलने वाली चेतावनी की तरफ ध्यान भी देंगे या इसे महज एक बाहरी रिपोर्ट मानकर ठंडे बस्ते में डाल देंगे।  भारत में बुनियादी शिक्षा का एक पहलू यह भी है कि इसके तहत प्रति बच्चा खर्च लगातार बढ़ रहा है, लेकिन इसका कोई असर नजर नहीं आ रहा। भारत में राज्यों के बीच भी इस खर्च को लेकर जबर्दस्त असमानता देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए बिहार में इस काम पर आने वाला खर्च केरल के छठे हिस्से के बराबर है। साफ है कि राज्य इस मामले में अपने हिस्से आने वाला खर्च करने में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखा रहे। इसके चलते केंद्र को भी अपने हिस्से की राशि खर्च न करने का बहाना मिल जाता है।  यूनेस्को की यह रिपोर्ट सुझाती है कि 2015 और इसके बाद की योजनाओं में कुल सरकारी खर्च का 20 फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करने की कोशिश होनी चाहिए। प्राइमरी शिक्षा की गुणवत्ता को अजेंडे पर लाने के साथ ही भारत को खर्च बढ़ाने के इस सुझाव पर भी गंभीरता से गौर करना होगा क्योंकि प्राइमरी शिक्षा का स्तर ऊंचा किए बगैर विकास के रास्ते पर हम ज्यादा दूर नहीं जा पाएंगे। 

 परीक्षा की ओर लौटना चाहिए

शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के तहत विद्यार्थियों को अगली कक्षा में क्रमोन्नत करना आवश्यक हो जाने के बाद विद्यार्थियों, शिक्षकों और अभिभावकों ने तो कक्षा आठवीं तक की पढ़ाई से करीब-करीब मुंह ही मोड़ लिया है। कुछ राज्यों ने तो आरटीई एक्ट लागू होने से पहले ही कक्षा के स्तर को प्राप्त किए बिना ही अगली कक्षा में क्रमोन्नत करने का सिलसिला बना रखा है। परिणामत: सभी स्तरों पर शिक्षा में गिरावट आ रही है।  आरटीई एक्ट पास होनेे के बाद देश के बीस राज्यों के शिक्षा मंत्रियों तथा शिक्षाविदों ने इसका विरोध किया था। इस विरोधस्वरूप केन्द्र सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति जून-2012 में हरियाणा की शिक्षा मंत्री डॉ. गीता भुक्कल की अध्यक्षता में गठित की थी। इस समिति में प्रान्तों के शिक्षा के अधिकारी भी शामिल किए गए थे। यह निकाय विद्यालयों के शिक्षा सम्बंधी निर्णय लेने वाला सर्वोच्च निकाय है। डॉ. गीता भुक्कल ने एडवायजरी-बोर्ड-ऑफ-एजुकेशन की 62वीं मीटिंग में रिपोर्ट पेश करते हुए सिफारिश की है कि विद्यार्थियों की स्क्रीनिंग होना अत्यंत आवश्यक है। समिति ने इस बात पर भी जोर दिया है कि आठवीं कक्षा तक बिना कक्षा का स्तर प्राप्त किए छात्रों को पास करना, नवीं और दसवीं कक्षा में पहुंचने वाले विद्यार्थियों के लिए गंभीर परेशानियां पैदा कर रहा है। समिति ने इस योजना को समाप्त करने की सिफारिश की है। इससे उच्च माध्यमिक कक्षा में पहुंचने वाले विद्यार्थियों की गुणवत्ता और संख्या में काफी कमी आ रही है और परीक्षा परिणाम में भी गिरावट आ रही है। शिक्षकों के पढ़ाने का स्तर भी धीरे-धीरे कमजोर हो रहा है। उल्लेखनीय है कि इस विषय पर पिछले दिनों एक संसदीय पैनल ने भी चिंता व्यक्त की थी।  मेरी समझ में आज हम शिक्षा के मूलभूत सिद्धांतों की पूर्ण अवहेलना कर रहे हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को यदि समझना चाहते हैं, तो हमें उसे दायित्वपूर्ण, परिष्कृत, उपयोगी और परिमार्जित बनाना होगा। अगर हम शिक्षा की नीति निर्धारण करने से पूर्व कुछ मूलभूत बातों को ध्यान में रखें, तो एक सशक्त, संतुलित और समग्र शिक्षा नीति का निर्माण कर सकते हैं। पहला, हमें माता-पिता या अभिभावकों को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वे उच्च संस्कारों से युक्त, बच्चे के प्रथम चार-पांच सालों में नैतिकता की नींव डालें और इस बात को समझें कि शिक्षा का दायित्व केवल सरकार और विद्यालयों का ही नहीं है, शिक्षा परिवार एवं समाज का अहम दायित्व है।  दूसरा पहलू हैं शिक्षक, उन्हें इस बात के लिए तैयार करना चाहिए कि वे विद्यार्थियों में आपसी स्पर्धा उत्पन्न न होने दें, क्योंकि स्पर्धा आपस में वैमनस्य पैदा करती है। एक योग्य शिक्षक को विद्यार्थियों में ऎसी जागरूकता पैदा करनी चाहिए कि वे स्पर्धा अपने आप से करें, दूसरों से नहीं। तीसरा मुद्दा है विद्यार्थी, जिसकी मौलिक विशेषताओं को उभारा जाना चाहिए। चौथा पहलू है पाठ्यक्रम, जो विद्यार्थी को आधुनिक ज्ञान के साथ-साथ समाज, रोजगार के लिए भी तैयार कर सके। पांचवा पहलू है शिक्षा को आडम्बरों से मुक्त कर सस्ती और सार्वजनिक बनाया जाए। गरीब और अमीर को उसे प्राप्त करने में आर्थिक दुविधा न हो। ध्यान रहे आडम्बरों से मुक्त सस्ती शिक्षा जनता और विद्यार्थियों में आत्मविश्वास और सरकार के प्रति आस्था पैदा करेगी। छठी और आखिरी बात है विद्यालय और समाज का वातावरण, जिसमें पारदर्शिता, शुद्धता और विश्वसनीयता रहनी चाहिए। शिक्षा की नीतियां बनाने वालों को पता होना चाहिए कि उपरोक्त बातों से शिक्षा ऎसे गुथी हुई होती है कि शिक्षा से इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। इनका निर्माण शिक्षा ही करती है और ये सभी एक सशक्त शिक्षा पद्धति से निर्मित होते हैं।
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ये युवा कैसा भारत बनाएंगे

Saturday, 12 July 2014

एनके सिंह
 जनसत्ता 12 जुलाई, 2014 : विश्व बैंक ने ‘दक्षिण एशियाई छात्रों में ज्ञान’ शीर्षक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि भारत सहित दक्षिण एशियाई देश शिक्षा पर खर्च तो कर रहे हैं पर शिक्षण की गुणवत्ता खराब होने की वजह से इन देशों का आर्थिक विकास ही नहीं अवरुद्ध हो रहा है बल्कि इससे युवाओं में बेरोजगारी-जनित गरीबी भी बढ़ रही है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों के कक्षा पांच के विद्यार्थी सामान्य माप-तौल, दो-अंकों का जोड़-घटाना, अपनी बात को वाक्य में लिख कर समझाना या शुद्ध वाक्य लिखना तक नहीं जानते। न ही वे सौ तक के अंकों या पूरी ककहरा (संपूर्ण वर्णमाला) का ज्ञान रखते हैं। उधर बिहार सरकार ने पिछले सप्ताह पाया कि प्राइमरी स्तर पर जिन 1.50 लाख शिक्षकों की संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) के आधार पर नियुक्ति कुछ साल पहले की गई थी उनमें से जब पचास हजार की जांच की गई तो उनमें से बीस हजार की डिग्रियां या सर्टिफिकेट फर्जी थे। जो सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात है वह यह कि शिक्षक की नियुक्तियों में अधिकारियों, मुखियाओं ने जमकर पैसे कमाए हैं और अधिकतर नियुक्तियां डेढ़ लाख से दो लाख रुपए घूस लेकर की गई हैं। उस पर तुर्रा यह कि इस मामले के संज्ञान में आने के बाद भी केवल कुछ मुखियाओं को हटाया गया लेकिन किसी भी स्तर के एक भी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में इस युवा शक्ति का जिक्र किया और विश्वास जाहिर किया कि विश्व पटल पर यही शक्ति भारत को आगे ले जाएगी। लेकिन शायद इस शक्ति को वास्तव में उपादेय बनाने के लिए एक नई क्रांति का आगाज करना होगा देश की शिक्षा नीति में। अन्यथा विश्व बैंक की रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि यह शक्ति एक बोझ बन जाएगी देश की छाती पर।  हाल ही में एक बड़े मीडिया शिक्षा संस्थान में भर्ती के लिए आयोजित एक इंटरव्यू में पाया गया कि जो छात्र-छात्राएं पत्रकारिता में परास्नातक (पोस्ट ग्रेजुएशन) में दाखिले के लिए आए उनमें नब्बे प्रतिशत को यह नहीं मालूम था कि प्रधानमंत्री का चुनाव कैसे होता है। कई छात्रों को नेहरू और इंदिरा गांधी में क्या संबंध थे नहीं मालूम था और लगभग पंचानबे प्रतिशत भारत के पांच पूर्व राष्ट्रपतियों के नाम नहीं बता पाए। लगभग इतने ही तुलसीदास को नहीं जानते थे और अगर इक्के-दुक्के ने बताया भी तो यह कह कर कि इनका एक ‘रामायण’ नामक सीरियल से संबंध है। भारत प्रतिवर्ष अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.2 प्रतिशत (दो लाख सत्तर हजार करोड़ रुपए, जिसमें से पैंसठ हजार करोड़ रुपए केवल केंद्र सरकार का बजट है) शिक्षा पर खर्च करता है। दबाव यह है कि इसे कम-से-कम ढाई गुना किया जाए। हालांकि कुछ राज्य जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश यह दावा तो करते हैं कि इनके यहां पंजीकरण (एनरोलमेंट) का प्रतिशत नब्बे से सत्तानबे हो गया है, पर इसका कारण शिक्षा के प्रति समाज में रुझान न होकर छात्रों को मिलने वाली मदद (वस्तु या नकद के रूप में) और मध्याह्न भोजन है। गैर-सरकारी संस्था ‘प्रथम’ की पिछले पांच वर्षों की रिपोर्ट (असर) लगातार इस बात को पुरजोर तरीके से उठा रही है कि ‘बीमारू’ राज्य खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में कक्षा पांच के बासठ प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा दो का ज्ञान नहीं रखते और सामान्य जोड़-घटाव भी नहीं कर पाते। पर शायद राज्य सरकारों के भ्रष्ट और निकम्मे तंत्र को केंद्र से मिलने वाले अनुदान या वोट की राजनीति से ज्यादा लगाव है। बिहार की नीतीश सरकार ने स्कूली छात्रों को मुफ्त साइकिल देना चुनाव का मुद्दा बनाया बगैर यह सोचे हुए कि राज्य में जो पौध लगाई जा रही है वह राष्ट्रीय स्तर पर जब नौकरी के बाजार में जाएगी तो कोई उन्हें नहीं पूछेगा। और तब आरोप लगेगा कि कि देश में अस्सी प्रतिशत ग्रेजुएट बेरोजगार हैं। इन राज्यों में शिक्षण की गुणवत्ता बेहद खराब रही है। और ऐसा नहीं है कि इन राज्यों के मुखिया यह सब नहीं जानते। ‘असर’ ने शिक्षा को लेकर अधिकारियों और शिक्षकों की आपराधिक उदासीनता और चालाकी पर दो वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के जिले का एक किस्सा बयान किया। हेडमास्टरों की एक बैठक में एक सरकारी अधिकारी ने कहा ‘सभी बच्चों का दाखिला लें; उनके साथ मारपीट न करें; उन्हें पास करके अगली कक्षा में भेजें और सुनिश्चित करें कि वे अगले साल भी दाखिला लें और अगर आप ऐसा कर लेते हैं तो यह तय मानिए कि आपने शिक्षा के अधिकार के तहत मिले अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है।’ अधिकारी के इस आदेश के पीछे छिपा संदेश स्पष्ट था। संकेत यह था कि बच्चा पढ़ने आए न आए, रजिस्टर में नाम होना चाहिए; पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है; और अगले साल भी यही काम करना है ताकि येन-केन-प्रकारेण ‘लक्ष्य’ हासिल हो सके। व्यापक रूप से किए गए इस सर्वेक्षण में सरकार के तमाम दावों के खोखलेपन को उजागर किया गया है। अध्ययन में इस बात को भी दर्शाया गया है कि किस तरह से बीमारू राज्य (बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और साथ ही साथ उत्तराखंड और छत्तीसगढ़) शिक्षा के क्षेत्र में लगातार पिछड़ रहे हैं। भारत सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के बजट को बढ़ाते हुए 68,710 करोड़ (2007-08) से बढ़ा कर 97,255 करोड़ (2009-10) कर दिया, लेकिन ऐसा लग रहा है कि इन सारे प्रयासों पर संबंधित राज्य सरकारों के भ्रष्ट-तंत्र ने पानी फेर दिया है। दरअसल, शिक्षा देने की जिम्मेदारी संवैधानिक रूप से ही नहीं, व्यावहारिक रूप से भी राज्य सरकारों की ही है। ‘असर’ की रिपोर्ट देखने के बाद यहां प्रश्न उठता है कि क्या इसी किस्म के प्रयासों से हम चीन जैसे राष्ट्रों से मुकाबला कर सकेंगे। आज भारत में जहां उच्च-शिक्षा के लिए केवल साढ़े तेरह प्रतिशत छात्र दाखिला (जीइआर) ले रहे हैं, वहीं चीन और मलेशिया- जो हमसे काफी पीछे रहा करते थे- के 22.1 और 24 प्रतिशत छात्र आज उच्च शिक्षा में दाखिला लेते हैं। जबकि अमेरिका में उच्च-शिक्षा में 81.6 प्रतिशत छात्र प्रवेश लेते हैं। एक और उदाहरण देखिए। आज से अठारह साल पहले जहां चीन में केवल उन्नीस सौ पीएचडी हुआ करते थे (जबकि भारत में करीब तीन हजार पीएचडी होते थे) आज बाईस हजार पीएचडी हर साल निकलते हैं। भारत में केवल छह हजार पीएचडी निकल रहे हैं जबकि अमेरिका में चालीस हजार। अगर यही स्थिति रही तो भारत ‘पॉवर इज नॉलेज’ (ज्ञान ही शक्ति है) की दौड़ में कितना पीछे रहेगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ‘असर’ की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश में कक्षा पांच में आधे से ज्यादा छात्रों को कक्षा दो का ज्ञान नहीं रहता, वे गणित से घबराए हुए हैं। दाखिले के जो आंकड़े राज्य सरकारों के हैं, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार के, वे ‘असर’ के आंकड़ों के मुताबिक फर्जी हैं। विश्व बैंक की तीन दिन पहले जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत और पाकिस्तान सहित दक्षिण एशिया के कई देश हैं (श्रीलंका को छोड़ कर) जिनमें शिक्षक का ज्ञान उस प्राइमरी स्कूल के विद्यार्थी के ही समकक्ष होता है। रिपोर्ट के अनुसार सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत और पाकिस्तान के प्राइमरी स्कूल के शिक्षक को जब उसके द्वारा पढ़ाए जाने वाले विषय के कुछ सवाल दिए गए तो वे उन्हेंहल नहीं कर पाए, यानी उन्हें सामान्य जोड़-घटाव के सवाल नहीं आते थे। यही वजह है कि न तो शिक्षक को पढ़ने की सलाहियत है न ही विद्यार्थियों को पढ़ने में दिलचस्पी। शिक्षक का भी काम मात्र मध्याह्न भोजन बांटना होता है और अगर जुगाड़ लगे तो उसके मद में आए पैसे हजम करना। बाकी काम कागजों पर। हाल में बिहार के एक गांव में जब एक युवा ग्राम प्रधान ने पांचवीं कक्षा के विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने के लिए उन्हें स्वयं कतार में लगवाया तो चौंकाने वाला तथ्य सामने आया और पता चला कि एक कक्षा के 95 में से 91 विद्यार्थी अपना नाम नहीं लिख पाते। जाने-माने शिक्षाविद डॉ दौलत सिंह कोठारी ने 1964-66 में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष के रूप में अपनी चर्चित रिपोर्ट ‘राष्ट्रीय प्रगति के लिए शिक्षा’ तैयार की और यह रिपोर्ट देश की शिक्षा नीति का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बनी। पच्चीस वर्षों बाद जब उनसे पूछा गया कि अगर वे फिर से राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष बने तो क्या यही रिपोर्ट देंगे। उन्होंने बेबाकी से कहा ‘मैं उसमें आमूलचूल परिवर्तन करूंगा और नई रिपोर्ट का मूलमंत्र होगा- चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा। कोठारी की वेदना समझना मुश्किल नहीं है। जो छात्र-छात्राएं- नेहरूराष्ट्रपति थे या प्रधानमंत्री या इंदिरा गांधी पहले हुर्इं या नेहरू-नहीं जानते, वे अच्छे सॉफ्टवेयर इंजीनियर होंगे इसमें शक है। जो युवा महाकवि तुलसी को ‘रामायण’ सीरियल से जानता होगा उसके लिए मंदिर बने तो ठीक न बने तो ठीक, सीरियल चलते रहना चाहिए। कैसे इस युवा से सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद की जाएगी। दरअसल, बलात्कार के खिलाफ इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाना कुछ लोगों के उत्तम सोच की उपज तो हो सकता है पर इसे पूरे समाज की धारा नहीं मान सकते। अण्णा के आंदोलन की असमय मृत्यु इसका ताजा उदाहरण है। यह अपेक्षा करना कि ऐसी उथली शिक्षा देकर हम देश का चरित्र निर्माण करेंगे, जिसमें भ्रष्टाचार और बलात्कार नहीं होगा, अपने को मृगमरीचिका का शिकार बनाना होगा।  वे अच्छे नागरिक तो नहीं ही होंगे, खासकर ऐसे नागरिक जो देश में भ्रष्टाचार या बलात्कार के खिलाफ लंबे समय तक आवाज उठाएं, यानी न करें न करने दें। चूंकि शिक्षा मूल रूप से राज्य का विषय है इसलिए केंद्र सरकार राज्यों से अनुनय-विनय ही कर सकती है या वित्तीय मदद पर कुछ अंकुश लगा सकती है। लेकिन राज्य सरकारों की गैर-जिम्मेदाराना और कुछ हद तक आपराधिक उदासीनता देश के विकास के प्रयासों को नीचे लाने के लिए काफी होगी।
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अक्षर से परिचय

:Wed, 15 Oct 2014

अगर यह सच है तो सचमुच गंभीर चिंता की बात है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिसंख्य बच्चे अक्षर नहीं पहचान पा रहे हैं। यानी अक्षर से परिचय नहीं है। एक गैर-सरकारी संगठन के सर्वे में यह जानकारी दी गई है। हालांकि इस तरह के संगठनों का अपना भी मकसद रहता है, इसलिए पूरी तरह इस रिपोर्ट को सच मानने में किसी तटस्थ व्यक्ति को कठिनाई हो सकती है। रिपोर्ट आंशिक तौर पर सही हो तब भी सरकार और समाज के लिए सचेत होने का समय है। संयोग से जिस वक्त रिपोर्ट जारी हो रही थी, राज्य के मानव संसाधन मंत्री भी जलसे में मौजूद थे। उन्होंने सर्वे के निष्कर्षो पर सवाल नहीं उठाया। शिक्षा के स्तर में सुधार की घोषणा की। बेशक राज्य सरकार की ओर से 14 साल तक के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा देने के मोर्चे पर बहुत काम हुआ है। बच्चों को इतनी सुविधाएं दी जा रही हैं, जिनके सहारे वे बिना मां-बाप पर बोझ बने कम से कम हाई स्कूल तक की शिक्षा हासिल कर सकते हैं। स्कूलों में दोपहर का भोजन, किताब, पोशाक और साइकिल, इन साधनों के सहारे बच्चों की पढ़ाई आसान हुई है। कुछ साल पहले तक गरीबों के बच्चे लाज-शर्म के चलते स्कूल नहीं जा पाते थे, क्योंकि उनके पास ढंग के कपड़े नहीं होते थे। मां-बाप की हैसियत किताब खरीदने की नहीं होती थी। स्कूलों में शिक्षकों की कमी थी। नई बहाली के जरिये एक हद तक यह कमी दूर हो गई है। बावजूद वंचित तबके के सौ फीसद बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा रहे हैं। एक दौर में सरकार ने स्कूल के बाहर रह गए बच्चों का दाखिला कराने के लिए अभियान चलाया। आठ साल पहले इस काम में पुलिस की भी मदद ली गई। पुलिस के स्थानीय अधिकारी सड़क पर विचरण करने वाले या कूड़ा बीनने वाले बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाते थे। एक अच्छा अभियान बिना किसी ज्ञात कारण के बंद हो गया। मुश्किल यह भी है कि बड़ी संख्या में बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ दे रहे हैं। इसे रोकने के लिए कारगर उपाय नहीं किया जा रहा है। इस समय शिक्षा के मामले में सरकार के कामकाज का मूल्यांकन करें तो यह तथ्य सामने आता है कि वह धन तो दिल खोल कर खर्च कर रही है, मगर उसे रिटर्न की तनिक भी परवाह नहीं है। पढ़ाने में अक्षम शिक्षकों के प्रशिक्षण का इंतजाम नहीं है। उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती है। कार्रवाई हो तो वोट बैंक का बैलेंस गड़बड़ हो जाने का अंदेशा बना रहता है। अगर इरादा नेक हो तो शिक्षा में सुधार करना अधिक मुश्किल काम नहीं है। इस काम में सरकार के साथ समाज की भी भागीदारी जरूरी है। बस, एक बार तय हो जाए कि शिक्षा को राजनीतिक नफा-नुकसान के हिसाब से अलग रखा जाएगा। फैसला वोट बैंक बनाने के बदले इस उद्देश्य से हो कि शिक्षा का स्तर सुधारना है। हो सकता है कि लोकप्रिय सरकार को कठोर कदम के चलते वोटों का नुकसान हो, लेकिन दीर्घ अवधि के लिए कोई कड़ा फैसला राज्य के हित में तो होगा ही। इस समय शिक्षा में राजनीति पहले नम्बर पर है। पढ़ाई की बारी उसके बाद आती है। जरूरी यह है कि प्राथमिकता का यह क्रम बदल दिया जाए। चीजें अपने आप रास्ते पर आ जाएंगी।
[स्थानीय संपादकीय: बिहार]